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Sunday 9 December 2018

आभासी दुनिया और रचना चोरी

आभासी दुनिया ने आज नव-रचनाकारों को एक वृहद् मंच प्रदान किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। प्राचीन उक्ति है - विज्ञान वरदान भी और अभिशाप भी। ठीक उसी प्रकार जहाँ आभासी दुनिया एक ओर वरदान भी है, वहीं दूसरी ओर अभिशाप भी है। इस संदर्भ में एक मामला है जिस पर आज मंथन होना है, वह है रचना की चोरी।
रचना की चोरी का प्रश्न सामने आते ही अनेक मुद्दे सहसा ही हमारे समक्ष खड़े हो जाते हैं और उन सभी पर सम्यक् विचार करना आवश्यक हो जाता है।


पहली बात है नैतिकता की। क्या यह नैतिक है? कदापि इसे नैतिक कार्य नहीं कहा जायेगा। तो प्रश्न उठता है कि नैतिकता का पतन भी इसका कारण है? विचारणीय संदर्भ है।


फिर बात उठती है कि यदि कोई सच में एक रचनाकार है, तो वह किसी अन्य की रचना को अपना कैसे कह सकता है? क्या उसे इससे संतुष्टि मिल सकेगी कि वह उस रचना को अपनी कह रहा है, जिसका सृजन उसने नहीं किया है?


कभी कोई किसी के भाव से प्रेरित हो उठता है और जाने-अनजाने ही वैसे ही भाव का सृजन कर लेता है। तब क्या उसे रचना चोरी कही जायेगी अथवा कुछ और? 


एक घटना याद आई कि एक व्यक्ति ने किसी ब्लॉग पर अपनी दो सौ से अधिक रचनायें प्रकाशित करवायीं। उस ब्लॉग के प्रशासक का यह बात पता चली कि उस व्यक्ति ने सभी की सभी रचनायें चोरी करके वहाँ प्रकाशित करवायी थीं। यहाँ बात पता चली, यदि नहीं चलती फिर क्या होता?


फिर यह चोरी कितनी सरल है। हम अपनी वाल पर, या किसी समूह में रचना प्रेषित करते हैं, जहाँ कोई भी उसे देख सकता है और कॉपी कर सकता है। तो क्या रचनाकर्म बंद कर देना चाहिये?


एक समूह में हज़ारों और लाखों लोग भी देखे गये हैं, वहाँ किसी की रचना की चोरी न होगी कोई गारंटी नहीं ले सकता।


फिर हमें सहसा ही किसी चोरी का पता चलता है। अनेक ऐसी चोरियाँ हैं, जिनका पता भी नहीं चलता, फिर क्या उपाय किये जा सकते हैं? यह तथ्य भी विचारणीय है।


ऐसा भी हो सकता है कि कोई हमारी रचना का प्रकाशन भी करवा ले, जो उनके नाम से हों। आज सैकड़ों ऑनलाइन एवं मुद्रित पत्रिकायें हैं, जिनके प्रचार-प्रसार इतने सीमित हैं कि किसी को जानकारी होनी संभव भी नहीं।


यदि हम अंतरजाल पर रचना प्रेषित करते हैं, तो चोरी रोकी नहीं जा सकती, यह पक्की बात है। इसका एक ही समाधान मुझे दिखाई देता है कि हमें सम्भलकर रहना चाहिये। तो हमें क्या करना चाहिये।


पहले फेसबुक (मुख पुस्तिका) वाल को लेते हैं।


वाल पर क्या रचना पोस्ट करनी चाहिये? मेरे मत में नहीं, यदि पोस्ट की भी तो आधी-अधूरी अथवा कुछ ऐसी तब्दीली करके कि कोई चुराये भी तो मौलिक से दूरी हो। अथवा ऐसी रचनायें जिनकी चोरी होने से कोई अंतर न पड़ता हो। कभी एकाध दोहा या शे’र या चंद पंक्तियाँ आदि। निर्णय हमें लेना है।


समूह की बात। फेसबुक, व्हाट्स एप समूह आदि।


अनेक समूह ऐसे हैं, जहाँ सदस्यों की संख्या का कोई अता-पता नहीं होता। वे ये भी नहीं जानते कि किसे और क्यों सदस्य बनाया गया है। अनेक लोग यह समझते हैं कि उनकी रचना इतने लोग पढ़ रहे हैं, किन्तु अनेक चोरी कर रहे हैं, इसका अनुमान हमें नहीं होता। अतः मात्र ऐसे समूह में रचना पोस्ट करें, जहाँ इसकी संभावना कम से कम है। जहाँ लगभग सभी जाने-पहचाने लोग हों। फिर कभी भी पूरी रचना का न डालना भी एक उपाय है। एक और युक्ति है अपने ईमेल में ड्राफ्ट के रूप में सेव कर लेना। तब रचना का दिन, तारीख, समय आदि अंकित हो जाता है। ब्लॉग से कोई भी कुछ भी उठा सकता है। अतः मात्र वही डालना चाहिए, जिससे आपको कोई अंतर न पड़ता हो।  


असल में समस्या लोभ संवरण का है। हमें प्रतीत होता है कि इतने लोग वाह कह रहे हैं और एक आत्म-संतुष्टि का भाव आने लगता है। इस भाव पर विजय करना आवश्यक है। फेसबुक पर ‘‘वाह’’ को मात्र एक ‘‘आह’’ समझनी चाहिये। यह वह स्थान नहीं है कि हम अपनी रचना साझा करें।  यदि पसंद हो, तो मात्र कुछ समूह में ही रचना साझा करनी चाहिये। यहाँ तक कि घर-परिवार आदि के फोटो आदि भी साक्षा नहीं करना चाहिये। हम इसके ग़लत उपयोग के बारे में नहीं जानते हैं। 


अब आती है एक अलग प्रकार की चोरी की बात, जिसमें भावों की चोरी की जाती है। ऐसी चोरी को पकड़ना असंभव है, जब तक कि शब्द एक से न हों। भाव एक समान हो सकते हैं और होंगे। लगभग सभी प्रकार के भावों पर रचनायें सदियों से लिखी जा रही हैं और लिखी जाती रहेंगी। अंतर शैली का होता है। कई बार शैली भी मिल जाती है, तब भाषा का अंतर होता है, सम्प्रेषण का अंतर होता है, यदि मौलिक है, अन्यथा चोरी ही कही जायेगी।


कॉपीराइट की बात अपनी जगह ठीक है। यह तब संभव है, जब हमें पता चले। एक बार की बात है, मेरी एक कहानी मध्य प्रदेश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी, बिना मेरी अनुमति के। छपी मेरे नाम से ही थी, केवल यह बात खटकी कि उन्हें कहाँ से मिली। बहुत प्रयास किया, लेकिन कभी संतोषजनक उत्तर न मिल पाया। ख़ैर, बात कॉपीराइट की नहीं, पहले पता चलने की है, यह पता चलना भी कठिन है। अनेक छोटे-छोटे अखबार, पत्र-पत्रिकायें छपती रहती हैं। ऑनलाइन में भी अनेक ब्लॉग, वेवसाइट, पत्रिका आदि हैं। सभी का प्रसार सभी तक नहीं होता। अतः मुख्य बात सावधानी बरतने की ही है। कुछ उपाय मैंने ऊपर सुझाये हैं, सदस्यगण उनका संज्ञान ले सकते हैं।


एक पुरानी कहावत है - सावधानी हटी दुर्घटना घटी। हमें सावधानी बरतनी चाहिये। इसके आलावा अधिक चिंता नहीं करनी चाहिये। फेसबुक, व्हाट्सएप आदि पर अनावश्यक रचनायें प्रेषित करने के लोभ से बचना चाहिये। मात्र अच्छे समूहों तक ही सीमित रहना चाहिये। यह मेरा व्यक्तिगत मत है। ग़ज़ल में ज़मीन की बात अलग होती है, लेकिन मिसरे को लेकर लिखना उचित नहीं है, क्योंकि तब रदीफ़ और क़ाफ़िया भी वही होगा। यह उचित नहीं जान पड़ता मेरी दृष्टि में। अपने-अपने विचार हो सकते हैं। एक उदाहरण देना चाहता हूँ। राहत इन्दौरी साहब की एक ग़ज़ल है -


दोस्ती जब किसी से की जाये
दुश्मनों की भी राय ली जाये


इसी ज़मीन पर मेरी एक ग़ज़ल है, लेकिन रदीफ़ और क़ाफ़िया आदि पूर्णतः भिन्न है, मात्र बह्र एक है।


दोस्ती से जो प्यार हो जाये
ज़िन्दगी ख़ुशगवार हो जाये
मैं तेरी सोच का परिन्दा हूँ
ये परिन्दा हज़ार हो जाये --- सपन

अनेक ऐसे चोर हैं, जो यह नहीं देखते कि चुराने लायक है अथवा नहीं, क्योंकि वे लेखक नहीं होते, बस लोगों के मध्य लेखक बनने का दम्भ भरते हैं, अतः इस बात से निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि चुराने लायक कुछ भी नहीं।


अभी तक हमने देखा कि रचना चोरी एक आम बात है और इससे बचना असंभव है। यदि हम नेट पर कुछ भी रखते हैं। एक और उपाय मैंने कुछ वर्ष पूर्व किया था। जो भी रचना होती थी, उसे सीधे ब्लॉग पर न लिखकर उसके फोटो को पेस्ट करता था। इससे चोरी करने वालों को कॉपी पेस्ट में कठिनाई होती है।


अन्तरजाल पर एक बार रचना डाल देने पर वह सभी के उपयोग के लिये हो जाती है। कॉपीराइट जो अमेरिका में है, उससे उस पर आपका ही अधिकार होता है, किन्तु पुनः न्यायालय आदि जाना पड़ता है, जो किसी साहित्यकार हेतु संभव नहीं। यहाँ भी कुछ नियमादि हैं किन्तु उस झंझट में पड़ना ही क्यों?


फिर भी हताश होने वाली बात कदापि नहीं है, बल्कि सोचने-समझने का विषय है और कड़े निर्णय लेने का है। यदि मन कड़ा कर लिया जाये, तो इससे बचना अत्यधिक सरल है, चाहे वह पूर्णतः न हो, किन्तु अधिकांशतः। एक बात है कि ब्लॉग आदि पर मात्र उतना ही होना चाहिये, जिसे कोई नकल करे भी तो कोई अन्तर न पड़े। फिर ब्लॉग पर तिथि, समय आदि भी अंकित होता है। इसके बाद भी कोई अपना बनाकर कुछ कर ले, तो अधिक कुछ नहीं किया जा सकता। बस एक ही मूलमंत्र है - सावधान रहें।
 

विश्वजीत ‘सपन’