विनम्रता
- इसकी परिभाषा ही सब-कुछ बोल जाती है। यह विनम्र होने की वह अवस्था है, जब
व्यक्ति अपने अहं को भूलकर हर प्रकार के सुझावों पर दृष्टिपात करता है। इससे दीनता
अथवा अयोग्यता से भी जोड़ा जाता है, जो अनुचित है क्योंकि यह
कृतज्ञता से जुड़ा होता है।
इस
विनम्रता के कई लाभ होते हैं और यह रचनाकार के लिये अत्यावश्यक गुण माना जा सकता
है, क्योंकि यह आपको एक बेहतर लेखक अथवा रचनाकार बनाने में सहायक सिद्ध होता
है। इसे इस प्रकार देख सकते हैं कि अपने लेखन को बेहतर बनाने के लिये आलोचना
प्राप्त करना आवश्यक होता है और इस आलोचना को स्वीकार तभी किया जा सकता है,
जब एक रचनाकार विनम्र होता है, अन्यथा अहंकार
उसे कुछ भी स्वीकार करने नहीं देता है। यह दूसरी बात है कि सभी आलोचनायें सहायक या
मूल्यवान नहीं होती हैं, किन्तु चावल के कंकड़ को बीनकर चावल
शुद्ध किया जा सकता है।
सीखने
का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि हमें किसी दूसरे से सीखना होगा, बल्कि
हम अपनी गलतियों को सुधार कर भी सीख सकते हैं। स्तरीय रचनाओं को पढ़कर भी सीख सकते
हैं। विभिन्न विषयों के ज्ञान को पाकर भी सीख सकते हैं और इस हेतु विनम्रता
अत्यावश्यक होती है।
सबसे
बड़ी है कि यह हमें आत्मसंतुष्ट होने से बचाती है। जैसे ही हम आत्मसंतुष्ट हो जाते
हैं, हमारे सीखने के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। तब किसी भी प्रकार से बेहतरी
की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है। आगे बढ़ना दुष्कर हो जाता है।
यह
विनम्रता अपनी कमजोरियों को पहचानने में मदद करती है। कोई भी सुझाव जब
स्वागत-योग्य बन जाता है,
तो अपनी कमजोरियों को हम पहचानने लगते हैं। इन्हें पहचान कर ही हम
स्वयं को परिमार्जित एवं परिवर्तित कर सकते हैं। यदि विनम्र भाव न होगा, तो हमें अपनी कमजोरियाँ कभी भी दिखाई नहीं देंगी। और इसी कारण यह स्वयं
में सुधार के द्वार खोलती है। अपनी रचना सभी को प्रिय होती हैं और होनी भी चाहिये,
किन्तु सुधार की गुंजाइश कभी भी रहती है और यह सुधार तभी संभव है,
जब हम विनम्र होकर सुझावों पर ध्यान दें तथा तदनुसार आवश्यक
परिमार्जन भी करें।
कुल
मिलाकर देखा जाये,
तो एक रचनाकार में विनम्रता का भाव उसे बेहतर रचनाकार बनाने में
बहुत ही सहायक सिद्ध होता है।
विश्वजीत 'सपन'