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यह विषय आज बहुत प्रासंगिक है। इस विषय पर चर्चा आम बात है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम केवल चर्चा ही
करते हैं अथवा इस चर्चा का कुछ लाभ भी उठाते हैं? खैर, यह तो पूर्णत: व्यक्तिगत
है, अत: इस विषय पर अधिक बात न कर कुछ इससे जुड़ी कुछ बातें आपके समक्ष रखना चाहता
हूँ।
१)
अंतरजाल एक व्यापक माध्यम
है जो छपने वाली विधा के मुकाबले बहुत असरकारी सिद्ध हो सकता है। यह माध्यम देश-विदेश की सीमा को क्षण भर में ही पार कर सकता है। अत: इसके महत्त्व
को कम करके आँकना हमारी भूल होगी। इस माध्यम से हमारी पहुँच बहुत कम समय में बहुत
अधिक लोगों तक हो सकती है। साथ ही यह संकलन का भी एक बहुत ही सस्ता और सुन्दर साधन
है, जिसका उपयोग किया जा सकता है, बल्कि हो भी रहा है, किन्तु वह किस प्रकार का है
और उसमें कितनी प्रमाणिकता है इस विषय पर विवाद हो सकता है।
२)
इस माध्यम में साहित्य के स्तर को ऊँचा बनाए
रखने की एक बड़ी चुनौती है। यहाँ कोई भी कुछ भी लिखकर साहित्यकार बन सकता है और
साहित्य को पतन के गर्त में धकेल सकता है। अत: आवश्यकता है कि इसके स्तर को बनाए
रखने हेतु प्रयास होना चाहिए। यह कठिन सत्य है, किन्तु इसे नज़रंदाज़ करना एक बहुत
बड़ी भूल होगी। इस कड़ी में ब्लॉग, फेसबुक, वेबसाईट आदि माध्यमों को देखा जा सकता है, जहाँ
स्तरहीन रचनाओं एवं रचनाकारों की भरमार है। कई तो ऐसे भी हैं जिन्हें शुद्ध हिंदी
लिखना भी नहीं आता है। ऐसे में यह चुनौती है कि हम साहित्य आखिर कहें किसे? यदि
यही परोसा गया तो कल जो भी देखेगा उसे पता ही नहीं होगा कि असली साहित्य होता क्या
है।
३)
प्रयास चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, वह कुछ न
कुछ परिणाम अवश्य देता है। बूँद-बूँद से सागर बनता है और यदि हम इस कहावत को
चरितार्थ करें तो हमारा प्रयास भी इतिहास का एक हिस्सा बन सकता है। और इसलिए मेरा
प्रयास है कि इस ब्लॉग के जरिये आप लोगों तक इस बात को पहुँचाया जाये कि कुछ भी
ऊल-जलूल अथवा कचरा साहित्य नहीं होता है।
रचना के बारे में, विशेषकर कविता या पद्य के
बारे में मुझे एक वार्ता याद आती है। मेरे एक मित्र से यूँ ही चर्चा चली थी कि आज
यह फेसबुक पर अनधिकार साहित्य का प्रचलन युवा साहित्य प्रेमियों के मन पर बुरा
प्रभाव डाल रहा है और उन्हें साहित्य के एक अनजान रास्ते पर ले जाकर भटका रहा है।
तो उनका कहना था कि कविता आज ऐसे दौर में है कि वह गद्य होकर भी पद्य के समान होती
है, किन्तु कविता की बुराई हो ही नहीं सकती। इसका कारण यह है कि कहीं न कहीं कुछ भाव
पक्ष तो होता ही है और इसलिए कुछ अच्छी बातें तो होती ही है चाहे शिल्प न हो।
इस बात से मुझे लगा कि आज हमने सबकुछ स्वीकार कर
लिया है। भाव के बिना कुछ लिखा ही नहीं जा सकता और भाव ढूँढा भी जा सकता है, जिसका सीधा अर्थ है कि कुछ भी लिख
देना काव्य है। जबकि यह सत्य नहीं है। काव्य का एक निश्चित स्वरुप होता है और
निश्चित शिल्प भी होता है। शिल्प के बिना कोई कविता ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार
सोलह श्रृंगार के बिना नारी। (वैसे यह उपमा भी सही नहीं है। किन्तु मैंने मात्र इसलिए कहा है ताकि आसानी से समझा जा सके।) बिना स्वरुप के किसी रचना का अस्तित्व ही
नहीं हो सकता। इसलिए यह चुनौती बड़ी है और साहित्यकारों को इस पर विशेष ध्यान देना
होगा क्योंकि अंतरजाल पर बहुत से प्रकाशक व्यापार खोलकर बैठ चुके हैं, जो पैसों
के लिए नवोदितों को यह कहकर लुभा रहे हैं कि वे युवा लेखकों को अवसर दे रहे हैं,
जबकि वे साहित्य के नाम पर कूड़ा जमाकर एक पुस्तक बना कर बाज़ार में भेज रहे हैं
जिसमें साहित्य नहीं है। किन्तु प्रश्न केवल यह नहीं है कि वह साहित्य है अथवा
नहीं बल्कि प्रश्न यह है कल ये ही पुस्तक प्रामाणिक बन जायेंगीं क्योंकि ये छपी
हुई पुस्तकें होंगीं जो पैसे कमाने के लिए छापी गई हैं न कि ये कोई साहित्यिक कृतियाँ हैं। यह भविष्य के
लिए एक खतरा और साहित्य के लिए खतरे की घंटी है।
४)
इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखन
उद्देश्यविहीन नहीं होना चाहिए। साहित्य के इतिहास को उठाकर देखें तो साहित्य कभी
भी उद्देश्य रहित नहीं रहा है। आज इस बात की आवश्यकता है कि मात्र चंद पल की ख़ुशी
अथवा मुस्कान के लिए फटीचर काव्य रचना कहाँ तक उचित है। आज हर व्यक्ति व्यवस्था पर
व्यंग-बाण छोड़ता प्रतीत होता है क्योंकि यह पाठकों को श्रवणीय लगता है। नारी पर
लेख ऐसे लिखे जाते हैं जैसे नारी का कोई सम्मान नहीं बचा है (यहाँ यह कहना उचित
होगा कि दो-चार घटनाओं को लेकर भड़ास निकालने से मेरा तात्पर्य है, इसे गलत
दृष्टिकोण से न समझा जाये।)। प्रेम और मनुहार के काव्य अपनी अनुभूतियों को लिखने
का माध्यम बन गया है। अनेक प्रकार के ऐसे विषय हैं, जिन पर बिना उचित विवेचन के और
बिना भविष्य के बारे में सोचे लिखा जा रहा है। तो भविष्य क्या समझने वाला है? यह
एक विचारणीय प्रश्न है। आज हम जिस काव्य का पठन करते हैं जैसे महाभारत, रामायण,
गीता, हितोपदेश, पंचतंत्र, रामचरित मानस आदि वह हमें उस काल के बारे में बताता है।
कल जब हम नहीं होंगे तो यह हमारे बारे में भी उसी प्रकार बतायेगा। यह प्रश्न काव्य
सृजन से पूर्व का है कि यह न केवल समाज का दर्पण होना चाहिए बल्कि एक सुन्दर सीख
का भी ताकि समाज उस पर चलने को प्रेरित हो सके।
इसके लिए हमें एकजुट होकर इस अभियान को सफल
बनाने का प्रयास करना होगा। मनुष्य को जीवन मात्र एक बार प्राप्त होता है। उसे एक
उद्देश्य के साथ जीने का प्रयास करना उसका अपना दायित्व है। वह चाहे तो
उद्देश्यविहीन जीवन भी जी सकता है, जो करोड़ों लोग करते हैं और कर रहे हैं। किन्तु
यह नहीं होना चाहिए। यदि साहित्य सेवा कर जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाना है तो
निर्णय लेना होगा और आज ही इसी समय कि हम अपना जीवन साहित्य की सेवा में अर्पित
करते हैं और समाज को एक सही दिशा देने का प्रयास करते हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रयास मात्र प्रयास होता है, छोटा अथवा बड़ा नहीं। यदि हमें यह
प्रयास करना है तो क्षणिक लोभ से हमें संवरण करना होगा। सत्य को सत्य और असत्य को
असत्य कहना होगा।
५)
आज अंतरजाल पर अनधिकार साहित्य और साहित्यकारों
की बाढ़ मौजूद है। बहुत से अनावश्यक वेबसाईट और ब्लॉग आदि है। कई असाहित्य की
श्रेणी हैं तो कई अत्यधिक भ्रामक और अनावश्यक। हम चाहे तो भीड़ का हिस्सा बनकर
इनका रसास्वादन कर सकते हैं, किन्तु “एकला चलो रे” की भाँति हम एक नयी राह भी बना
सकते हैं। फैसला हमें करना होगा। इस बात को समझना होगा कि क्या प्रामाणिक है और
क्या नहीं है? ब्लॉग पर अथवा वेबसाईट पर मंतव्य व्यक्ति का अपना होता है, किन्तु वह मंतव्य
प्रामाणिक है अथवा नहीं यह हमें स्वयं निर्णय लेना होगा और यदि हम जल्दबाजी में बिना
देखे और समझे अनुसरण करते हैं तो एक भ्रामक ज्ञान का हिस्सा बन जाते हैं और उसी को
प्रामाणिक मानने पर विवश हो जाते हैं। यह भी देखना होगा कि कोई रचना या काव्य जो वहाँ उपलब्ध है, वह मौलिक है अथवा नहीं? क्या मात्र सस्ती लोकप्रियता के लिए लिखा गया है अथवा उसका उद्देश्य पवित्र है? इस ओर हमारी दृष्टि सचेत होनी चाहिए। और
हमें इस प्रामाणिकता का हिस्सा भी बनना होगा क्योंकि यह हमारा कर्तव्य है और यही
उचित भी है। अनावश्यक कारणों को गिनाकर, झूठी तसल्ली पाकर और भ्रमित कर यदि हम
किसी उत्तम कार्य में योगदान से हिचकते हैं तो यह कभी हमारा भला नहीं कर सकता।
हमें समझना होगा कि ऐसा करके हम स्वयं से छल कर रहे हैं।
सादर नमन
विश्वजीत ‘सपन’ 19.05.2013