कविता क्या है? यह प्रश्न आज के इस युग में बहुत प्रासंगिक हो गया है। सोशल मीडिया की बढ़ती लोकप्रियता के इस युग में आज कवियों की भीड़ यकायक ही बढ़ गयी है। ऐसे में यह आवश्यक है कविता की मौलिकता बनी रहे। वह काव्य ही हो, कुछ अन्य नहीं। बहुत समय पहले सन् 1909 में प्रेमचन्द युगीन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने सरस्वती पत्रिका में एक निबंध लिखा था और वह आज तक का सर्वाधिक उपयुक्त निबंध माना जाता है। यह प्रयास कुछ वैसा ही है, किन्तु यह मात्र निबंध नहीं, बल्कि कविता की समस्त रूप-रेखा को जानने एवं समझने का प्रयास है ताकि कविवर्ग सहित पाठक भी एक समुचित विचार-बुद्धि से कविता अथवा काव्य का समुचित आकलन कर सके।
सच तो यह है कि यह प्रश्न जितना आसान दिखता है, उतना है नहीं। काव्यशास्त्र का अनुसरण करना भी आसान नहीं है क्योंकि वह एक बहुत ही वृहद् विषय की ओर जाना होगा। आज जब काव्य के क्षेत्र में अनेकानेक प्रयोग किये जा रहे हैं, तो कविता को भली-भाँति जानना आवश्यक हो जाता है। इस विषय पर एक समग्र दृष्टि डालने एवं पाठकों को समझ आये, ऐसी युक्ति से सरल शब्दों में कविता के आवश्यक अंगों आदि का वर्णन किया जा रहा है, ताकि एक आम सहृदय पाठक से लेकर काव्य सृजन में तल्लीन कविगण भी लाभान्वित हो सकें।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ क्या यह है कि हम कुछ भी कह लें और उसे कविता का नाम दे दें? अतः सर्वप्रथम हम कविता की कुछ जग प्रसिद्ध परिभाषाओं पर एक दृष्टि डालते हैं और समझने का प्रयत्न करते हैं कि कविता अथवा काव्य है क्या?
संस्कृत विद्वान भरत मुनि के अनुसार सुन्दर कोमल पद, गूढ़ शब्दों से रहित सरल एवं युक्तियुक्त रस ही काव्य है।
आचार्य दण्डी ने कहा कि चमत्कारपूर्ण अर्थ से युक्त सरस एवं मनोहर पदावली ही काव्य है।
आचार्य भामह कहते हैं - "शब्दार्थौ सहितो काव्यम्" अर्थात् शब्द एवं उसके उचित अर्थ का मेल ही कविता है।
आचार्य विश्वनाथ ने काव्य की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी - "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है।
पंडित जगन्नाथ ने कहा - "रमणीयार्थप्रतिपादकः काव्यम्" अर्थात् सुन्दर अर्थ को प्रकट करने वाला शब्द ही काव्य है।
इसी प्रकार मम्मट, रुद्रट, उद्भट, आनंदवर्धन, पंडित अम्बिकादत्त व्यास आदि ने भी अपनी-अपनी परिभाषायें दी हैं।
इनके अलावा हिन्दी साहित्यकारों ने भी कविता की परिभाषायें दी हैं।
आचार्य देव ने कहा कि ऐसे सार्थक शब्द जिनमें छंद, भाव, रस एवं अलंकार हो उसे कविता कहते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में जीवन की अनुभूति ही कविता है।
जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को कविता माना है।
महादेवी वर्मा कहती हैं - कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण ही कविता है।
सुमित्रा नंदन पंत ने कविता को परिपूर्ण क्षणों की वाणी माना है।
इसी प्रकार पाश्चात्य विद्वानों ने भी इसकी परिभाषायें दी हैं। इनमें से कुछ हैं -
किन्तु क्या मात्र अनुभूतियों की भावाभिव्यक्ति को कविता कहा जाना उचित होगा? एक बड़ा प्रश्न है। आइये इस पर विचार करते हैं, क्योंकि तभी हम कविता के वास्तविक स्वरूप को जान पायेंगे।
कविता के दो पक्ष निर्धारित किये गये हैं - भाव पक्ष एवं कला पक्ष। आंतरिक पक्ष ही भाव पक्ष है, जबकि बाह्य पक्ष को कला पक्ष कहा जाता है।
कला पक्ष
पहले कला पक्ष पर विचार करते हैं। कला पक्ष इसलिये महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यह बाह्य सौन्दर्य को निखारता है और इसी कारण से पाठक सहज ही आकर्षित होते हैं। छंद, तुक, अलंकार, रस, शब्द शक्ति, भाषा आदि सभी कला पक्ष का द्योतन करते हैं। लय, यति-गति सभी कविता को अलौकिक सौन्दर्य प्रदान करते हैं। इसी कारण से वह पाठक के हृदय को झंकृत करने का सामर्थ्य रखती है। अतः कला पक्ष के बिना कविता का सौन्दर्य स्थापित नहीं किया जा सकता है। हम भले ही उसे कविता कह लें, किन्तु साहित्य समाज एवं पाठक उसे नकार ही देगा और ऐसा ही अभी तब होता आया है।
इसी क्रम में कविता में गुण एवं शब्द शक्तियों का विचार आता है। गुण तीन प्रकार के बताये गये हैं - माधुर्य, प्रसाद एवं ओज।
माधुर्य गुण - माधुर्य गुण वह है, जिसे पढ़कर कोई भी पाठक आनंदातिरेक में डूब जाये, उसका हृदय द्रवित हो जाये। शृंगार एवं करुण रस की रचनाओं में माधुर्य गुण दिखाई देता है। इस उदाहरण को देखें।
सुनि सुंदर बनै सुधारस साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दे सैन तिन्हें समुझाय कछू मुसकाय चली।। - गोस्वामी तुलसीदास
प्रसाद गुण - प्रसाद गुण का अर्थ है कि रचना सरलता से पाठक के हृदय को प्रभावित करे और उसे बड़ी सरलता से समझ आये। एक उदाहरण देखें, कोई लाग-लपेट नहीं, सहज, सरल एवं सुन्दर अभिव्यक्ति।
माँ! ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आयी थी,
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में, मुझे खिलाने आयी थी।
मैंने पूछा- क्या लायी? बोल उठी माँ काओ,
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने कहा तुमी खाओ। - सुभद्रा कुमारी चौहान
ओज गुण - वीर रस की अभिव्यक्ति में ओज गुण समाहित होता है। वीर रस एवं रौद्र रस में तो इसकी अनुभूति होती ही है, वीभत्स एवं भयानक रस में भी यह गुण उत्कर्ष को प्राप्त करता है। एक उदाहरण को देखते हैं।
वीरों की गाथाओं से ही, हिलने धरा लगी है आज।
कभी न रुक पायेगी देखो, ऐसी पवन चली है आज।।
आज समंदर भी हारेगा, उफन-उफन कर होगा झाग।
हर सीने में धधक रही है, देखो ये कैसी है आग।। - विश्वजीत ‘सपन’
इसी क्रम में शब्द शक्ति का विचार बहुत आवश्यक हो जाता है। इसके बारे में जानना बहुत आवश्यक है क्योंकि मेरा ऐसा अनुभव है कि लोग बिना इनके अर्थ जाने ही इस संबंध में कह जाते हैं। यह एक वृहद् विषय है, किन्तु इस पर संक्षिप्त विचार रखना चाहता हूँ।
शब्द शक्ति - शब्द के अर्थबोधक व्यापार के मूल कारण को शब्द शक्ति कहते हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं - अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
अभिधा - शब्द की जिस शक्ति के कारण किसी शब्द के मूल अर्थ को समझा जाता है, उसे अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं।
लक्षणा - मुख्यार्थ की बाधा होने पर, रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से सम्बद्ध अन्य अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा शब्द शक्ति कहते हैं। इसके कई प्रकार होते हैं - प्रयोजनवती लक्षणा, गौणी लक्षणा, शुद्धा लक्षणा और रूढ़ा लक्षणा।
व्यंजना - कभी-कभी अभिधा और लक्षणा से वाक्य का अभिप्रेत अर्थ नहीं मिल पाता है। ऐसी दशा में जिस शब्द शक्ति से अभिप्रेत अर्थ तक पहुँचा जा सकता है, उसे व्यंजना कहते हैं। इससे प्राप्त अर्थ को व्यंग्यार्थ कहते हैं। इसके भी कई भेद हैं, जैसे शाब्दी व्यंजना, आर्थी व्यंजना, वस्तु व्यंजना, अलंकार व्यंजना, भाव व्यंजना।
इसी क्रम में रसों के बारे में बताना भी आवश्यक हो जाता है। यही भाव पक्ष है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार नौ भाव ही नौ रस हैं। असल में रस काव्य का प्राण कहा जाता है। इसीलिये ‘वाक्यं रसात्मकमं काव्यम्’ इसकी एक परिभाषा बनी है। जिस चमत्कारपूर्ण असाधारण आनंद की प्राप्ति किसी पाठक को होती है, वही रस है। रस अखण्ड है, स्वप्रकाश है, चिन्मय है, ब्रह्मानंद है। यह अलौकिक आनंद प्रदायक है। भरतमुनि ने कहा है कि विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है। काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में कहा गया है कि सहृदयों के हृदय का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है, तो रस की निष्पत्ति होती है।
शिल्प पक्ष या कला पक्ष के बाद कविता के आन्तरिक स्वरूप को देखना आवश्यक है और यही भाव पक्ष भी है। कवि अपनी दृष्टि के जगत के सुख-दुख, क्रोध-घृणा, आचार-व्यवहार आदि को देखता है, यही भाव पक्ष है।
इसके अलावा उद्देश्य भी रचनाधर्मिता का एक आवश्यक अंग है। यह बात सही है कि हमेशा लोक-कल्याणकारी उद्देश्य नहीं हो सकता, किन्तु कुछ उद्देश्य तो होगा ही, चाहे वह क्षीण रूप में ही क्यों न हो। उद्देश्यविहीन जीवन किस काम का?
तो रचना करते समय भाव पक्ष में विषय चयन, गाम्भीर्य, नवीनता, मौलिकता, वैचारिक सोच, दिशा-बोध आदि का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है। ठीक उसी प्रकार कला पक्ष में शिल्प, अलंकार, भाषा, शैली, शुद्धता, विराम चिह्न आदि की साज-सज्जा भी आवश्यक हो जाती है।
यही कविता के मूल में होना अपेक्षित है। लेखन के पूर्व इन तथ्यों को जानना, समझना एवं तदनुसार लेखन को उचित मार्ग पर ले चलने की आवश्यकता आज से पूर्व इतनी नहीं थी, क्योंकि आज का शौक़िया लेखन पथभ्रष्ट है।
एक विवाद हमेशा से ही होता रहा है जिसके कारण स्वच्छंद छंद, मुक्तछंद या अछंद कविताओं का जन्म हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि शिल्प में भावों को अच्छी तरह से पिरोना कठिन है, शिल्प के कारण भाव मृत हो जाते हैं। यह कथन असत्य है, क्योंकि सदियों से कवियों ने सुन्दर-सुन्दर भावों को शिल्प के अनुसार प्रकट किये। समस्त संस्कृत भाषा में छंदोबद्ध रनचायें हुईं। हिन्दी में छंदोबद्ध रचनायें ही अधिक हुईं और प्रचलित भी हुईं। फिर अछंद की बात, यह भाव न हो पाने की बात बेमानी ही है। असल में बाधक शिल्प नहीं है, अपितु भाव, भाषा, शब्द शक्ति, सम्प्रेषण आदि की कमी को भाव प्रकट नहीं कर पाने का बहाना बनाया जाता रहा है। यदि हमें भाषा आदि का समुचित ज्ञान नहीं, तो शिल्प को दोष देना उस मुहावरे के समान है कि नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
विश्वजीत ‘सपन’
सच तो यह है कि यह प्रश्न जितना आसान दिखता है, उतना है नहीं। काव्यशास्त्र का अनुसरण करना भी आसान नहीं है क्योंकि वह एक बहुत ही वृहद् विषय की ओर जाना होगा। आज जब काव्य के क्षेत्र में अनेकानेक प्रयोग किये जा रहे हैं, तो कविता को भली-भाँति जानना आवश्यक हो जाता है। इस विषय पर एक समग्र दृष्टि डालने एवं पाठकों को समझ आये, ऐसी युक्ति से सरल शब्दों में कविता के आवश्यक अंगों आदि का वर्णन किया जा रहा है, ताकि एक आम सहृदय पाठक से लेकर काव्य सृजन में तल्लीन कविगण भी लाभान्वित हो सकें।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ क्या यह है कि हम कुछ भी कह लें और उसे कविता का नाम दे दें? अतः सर्वप्रथम हम कविता की कुछ जग प्रसिद्ध परिभाषाओं पर एक दृष्टि डालते हैं और समझने का प्रयत्न करते हैं कि कविता अथवा काव्य है क्या?
संस्कृत विद्वान भरत मुनि के अनुसार सुन्दर कोमल पद, गूढ़ शब्दों से रहित सरल एवं युक्तियुक्त रस ही काव्य है।
आचार्य दण्डी ने कहा कि चमत्कारपूर्ण अर्थ से युक्त सरस एवं मनोहर पदावली ही काव्य है।
आचार्य भामह कहते हैं - "शब्दार्थौ सहितो काव्यम्" अर्थात् शब्द एवं उसके उचित अर्थ का मेल ही कविता है।
आचार्य विश्वनाथ ने काव्य की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी - "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है।
पंडित जगन्नाथ ने कहा - "रमणीयार्थप्रतिपादकः काव्यम्" अर्थात् सुन्दर अर्थ को प्रकट करने वाला शब्द ही काव्य है।
इसी प्रकार मम्मट, रुद्रट, उद्भट, आनंदवर्धन, पंडित अम्बिकादत्त व्यास आदि ने भी अपनी-अपनी परिभाषायें दी हैं।
इनके अलावा हिन्दी साहित्यकारों ने भी कविता की परिभाषायें दी हैं।
आचार्य देव ने कहा कि ऐसे सार्थक शब्द जिनमें छंद, भाव, रस एवं अलंकार हो उसे कविता कहते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में जीवन की अनुभूति ही कविता है।
जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को कविता माना है।
महादेवी वर्मा कहती हैं - कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण ही कविता है।
सुमित्रा नंदन पंत ने कविता को परिपूर्ण क्षणों की वाणी माना है।
इसी प्रकार पाश्चात्य विद्वानों ने भी इसकी परिभाषायें दी हैं। इनमें से कुछ हैं -
Aristotle - Poem is an imitation of nature by means
of words.
Thomas Hardy – Poetry is emotion put into measure.
William Wordsworth - Poetry is the spontaneous
overflow of powerful feelings. It takes its origin from emotions
recollected in tranquillity.
Shelly - Poetry is the record of the best and
happiest moments of the happiest and best minds.
Mathew Arnold - Poetry is, at bottom, a criticism
of life.
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कविता की कोई एक परिभाषा नहीं है। इसके बाद भी कुछ समानतायें देखी जा सकती हैं। जैसे शब्द, अर्थ, भाव, अलंकार, रस, आलोचना आदि। मित्रों, ये कुछ ही परिभाषायें हैं और अनेक और भी साहित्य जगत में विद्यमान हैं। अतः आगे हम समझने का प्रयास करेंगे कि कविता क्या है? किसे कविता कहा जाना चाहिये और क्यों?
इन सभी परिभाषाओं एवं ऐसी अनेक अन्य परिभाषाओं के देखने पर एक अनुभूति यह होती है कि कविता की परिभाषा उसके गुणों के आधार पर की गयी हैं और इसलिये कोई एक सर्वमान्य परिभाषा संभव नहीं हो सकी है। मेरे विचार से कविता की परिभाषा है - "रस एवं अलंकार से युक्त सुन्दर शब्दार्थ सहित उचित एवं सहज प्राकृतिक एवं अन्य अनुभूत भावाभिव्यक्ति ही कविता है।"
इन सभी परिभाषाओं एवं ऐसी अनेक अन्य परिभाषाओं के देखने पर एक अनुभूति यह होती है कि कविता की परिभाषा उसके गुणों के आधार पर की गयी हैं और इसलिये कोई एक सर्वमान्य परिभाषा संभव नहीं हो सकी है। मेरे विचार से कविता की परिभाषा है - "रस एवं अलंकार से युक्त सुन्दर शब्दार्थ सहित उचित एवं सहज प्राकृतिक एवं अन्य अनुभूत भावाभिव्यक्ति ही कविता है।"
किन्तु क्या मात्र अनुभूतियों की भावाभिव्यक्ति को कविता कहा जाना उचित होगा? एक बड़ा प्रश्न है। आइये इस पर विचार करते हैं, क्योंकि तभी हम कविता के वास्तविक स्वरूप को जान पायेंगे।
कविता के दो पक्ष निर्धारित किये गये हैं - भाव पक्ष एवं कला पक्ष। आंतरिक पक्ष ही भाव पक्ष है, जबकि बाह्य पक्ष को कला पक्ष कहा जाता है।
कला पक्ष
पहले कला पक्ष पर विचार करते हैं। कला पक्ष इसलिये महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यह बाह्य सौन्दर्य को निखारता है और इसी कारण से पाठक सहज ही आकर्षित होते हैं। छंद, तुक, अलंकार, रस, शब्द शक्ति, भाषा आदि सभी कला पक्ष का द्योतन करते हैं। लय, यति-गति सभी कविता को अलौकिक सौन्दर्य प्रदान करते हैं। इसी कारण से वह पाठक के हृदय को झंकृत करने का सामर्थ्य रखती है। अतः कला पक्ष के बिना कविता का सौन्दर्य स्थापित नहीं किया जा सकता है। हम भले ही उसे कविता कह लें, किन्तु साहित्य समाज एवं पाठक उसे नकार ही देगा और ऐसा ही अभी तब होता आया है।
इसी क्रम में कविता में गुण एवं शब्द शक्तियों का विचार आता है। गुण तीन प्रकार के बताये गये हैं - माधुर्य, प्रसाद एवं ओज।
माधुर्य गुण - माधुर्य गुण वह है, जिसे पढ़कर कोई भी पाठक आनंदातिरेक में डूब जाये, उसका हृदय द्रवित हो जाये। शृंगार एवं करुण रस की रचनाओं में माधुर्य गुण दिखाई देता है। इस उदाहरण को देखें।
सुनि सुंदर बनै सुधारस साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दे सैन तिन्हें समुझाय कछू मुसकाय चली।। - गोस्वामी तुलसीदास
प्रसाद गुण - प्रसाद गुण का अर्थ है कि रचना सरलता से पाठक के हृदय को प्रभावित करे और उसे बड़ी सरलता से समझ आये। एक उदाहरण देखें, कोई लाग-लपेट नहीं, सहज, सरल एवं सुन्दर अभिव्यक्ति।
माँ! ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आयी थी,
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में, मुझे खिलाने आयी थी।
मैंने पूछा- क्या लायी? बोल उठी माँ काओ,
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने कहा तुमी खाओ। - सुभद्रा कुमारी चौहान
ओज गुण - वीर रस की अभिव्यक्ति में ओज गुण समाहित होता है। वीर रस एवं रौद्र रस में तो इसकी अनुभूति होती ही है, वीभत्स एवं भयानक रस में भी यह गुण उत्कर्ष को प्राप्त करता है। एक उदाहरण को देखते हैं।
वीरों की गाथाओं से ही, हिलने धरा लगी है आज।
कभी न रुक पायेगी देखो, ऐसी पवन चली है आज।।
आज समंदर भी हारेगा, उफन-उफन कर होगा झाग।
हर सीने में धधक रही है, देखो ये कैसी है आग।। - विश्वजीत ‘सपन’
इसी क्रम में शब्द शक्ति का विचार बहुत आवश्यक हो जाता है। इसके बारे में जानना बहुत आवश्यक है क्योंकि मेरा ऐसा अनुभव है कि लोग बिना इनके अर्थ जाने ही इस संबंध में कह जाते हैं। यह एक वृहद् विषय है, किन्तु इस पर संक्षिप्त विचार रखना चाहता हूँ।
शब्द शक्ति - शब्द के अर्थबोधक व्यापार के मूल कारण को शब्द शक्ति कहते हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं - अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
अभिधा - शब्द की जिस शक्ति के कारण किसी शब्द के मूल अर्थ को समझा जाता है, उसे अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं।
लक्षणा - मुख्यार्थ की बाधा होने पर, रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से सम्बद्ध अन्य अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा शब्द शक्ति कहते हैं। इसके कई प्रकार होते हैं - प्रयोजनवती लक्षणा, गौणी लक्षणा, शुद्धा लक्षणा और रूढ़ा लक्षणा।
व्यंजना - कभी-कभी अभिधा और लक्षणा से वाक्य का अभिप्रेत अर्थ नहीं मिल पाता है। ऐसी दशा में जिस शब्द शक्ति से अभिप्रेत अर्थ तक पहुँचा जा सकता है, उसे व्यंजना कहते हैं। इससे प्राप्त अर्थ को व्यंग्यार्थ कहते हैं। इसके भी कई भेद हैं, जैसे शाब्दी व्यंजना, आर्थी व्यंजना, वस्तु व्यंजना, अलंकार व्यंजना, भाव व्यंजना।
इसी क्रम में रसों के बारे में बताना भी आवश्यक हो जाता है। यही भाव पक्ष है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार नौ भाव ही नौ रस हैं। असल में रस काव्य का प्राण कहा जाता है। इसीलिये ‘वाक्यं रसात्मकमं काव्यम्’ इसकी एक परिभाषा बनी है। जिस चमत्कारपूर्ण असाधारण आनंद की प्राप्ति किसी पाठक को होती है, वही रस है। रस अखण्ड है, स्वप्रकाश है, चिन्मय है, ब्रह्मानंद है। यह अलौकिक आनंद प्रदायक है। भरतमुनि ने कहा है कि विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है। काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में कहा गया है कि सहृदयों के हृदय का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है, तो रस की निष्पत्ति होती है।
शिल्प पक्ष या कला पक्ष के बाद कविता के आन्तरिक स्वरूप को देखना आवश्यक है और यही भाव पक्ष भी है। कवि अपनी दृष्टि के जगत के सुख-दुख, क्रोध-घृणा, आचार-व्यवहार आदि को देखता है, यही भाव पक्ष है।
इसके अलावा उद्देश्य भी रचनाधर्मिता का एक आवश्यक अंग है। यह बात सही है कि हमेशा लोक-कल्याणकारी उद्देश्य नहीं हो सकता, किन्तु कुछ उद्देश्य तो होगा ही, चाहे वह क्षीण रूप में ही क्यों न हो। उद्देश्यविहीन जीवन किस काम का?
तो रचना करते समय भाव पक्ष में विषय चयन, गाम्भीर्य, नवीनता, मौलिकता, वैचारिक सोच, दिशा-बोध आदि का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है। ठीक उसी प्रकार कला पक्ष में शिल्प, अलंकार, भाषा, शैली, शुद्धता, विराम चिह्न आदि की साज-सज्जा भी आवश्यक हो जाती है।
यही कविता के मूल में होना अपेक्षित है। लेखन के पूर्व इन तथ्यों को जानना, समझना एवं तदनुसार लेखन को उचित मार्ग पर ले चलने की आवश्यकता आज से पूर्व इतनी नहीं थी, क्योंकि आज का शौक़िया लेखन पथभ्रष्ट है।
एक विवाद हमेशा से ही होता रहा है जिसके कारण स्वच्छंद छंद, मुक्तछंद या अछंद कविताओं का जन्म हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि शिल्प में भावों को अच्छी तरह से पिरोना कठिन है, शिल्प के कारण भाव मृत हो जाते हैं। यह कथन असत्य है, क्योंकि सदियों से कवियों ने सुन्दर-सुन्दर भावों को शिल्प के अनुसार प्रकट किये। समस्त संस्कृत भाषा में छंदोबद्ध रनचायें हुईं। हिन्दी में छंदोबद्ध रचनायें ही अधिक हुईं और प्रचलित भी हुईं। फिर अछंद की बात, यह भाव न हो पाने की बात बेमानी ही है। असल में बाधक शिल्प नहीं है, अपितु भाव, भाषा, शब्द शक्ति, सम्प्रेषण आदि की कमी को भाव प्रकट नहीं कर पाने का बहाना बनाया जाता रहा है। यदि हमें भाषा आदि का समुचित ज्ञान नहीं, तो शिल्प को दोष देना उस मुहावरे के समान है कि नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
विश्वजीत ‘सपन’
aapane sunadar vivechan kiya hai
ReplyDeleteदिल से आभार आदरणीया।
DeleteWow i
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteShobnam guru dev j
ReplyDelete