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Sunday 9 December 2018

आभासी दुनिया और रचना चोरी

आभासी दुनिया ने आज नव-रचनाकारों को एक वृहद् मंच प्रदान किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। प्राचीन उक्ति है - विज्ञान वरदान भी और अभिशाप भी। ठीक उसी प्रकार जहाँ आभासी दुनिया एक ओर वरदान भी है, वहीं दूसरी ओर अभिशाप भी है। इस संदर्भ में एक मामला है जिस पर आज मंथन होना है, वह है रचना की चोरी।
रचना की चोरी का प्रश्न सामने आते ही अनेक मुद्दे सहसा ही हमारे समक्ष खड़े हो जाते हैं और उन सभी पर सम्यक् विचार करना आवश्यक हो जाता है।


पहली बात है नैतिकता की। क्या यह नैतिक है? कदापि इसे नैतिक कार्य नहीं कहा जायेगा। तो प्रश्न उठता है कि नैतिकता का पतन भी इसका कारण है? विचारणीय संदर्भ है।


फिर बात उठती है कि यदि कोई सच में एक रचनाकार है, तो वह किसी अन्य की रचना को अपना कैसे कह सकता है? क्या उसे इससे संतुष्टि मिल सकेगी कि वह उस रचना को अपनी कह रहा है, जिसका सृजन उसने नहीं किया है?


कभी कोई किसी के भाव से प्रेरित हो उठता है और जाने-अनजाने ही वैसे ही भाव का सृजन कर लेता है। तब क्या उसे रचना चोरी कही जायेगी अथवा कुछ और? 


एक घटना याद आई कि एक व्यक्ति ने किसी ब्लॉग पर अपनी दो सौ से अधिक रचनायें प्रकाशित करवायीं। उस ब्लॉग के प्रशासक का यह बात पता चली कि उस व्यक्ति ने सभी की सभी रचनायें चोरी करके वहाँ प्रकाशित करवायी थीं। यहाँ बात पता चली, यदि नहीं चलती फिर क्या होता?


फिर यह चोरी कितनी सरल है। हम अपनी वाल पर, या किसी समूह में रचना प्रेषित करते हैं, जहाँ कोई भी उसे देख सकता है और कॉपी कर सकता है। तो क्या रचनाकर्म बंद कर देना चाहिये?


एक समूह में हज़ारों और लाखों लोग भी देखे गये हैं, वहाँ किसी की रचना की चोरी न होगी कोई गारंटी नहीं ले सकता।


फिर हमें सहसा ही किसी चोरी का पता चलता है। अनेक ऐसी चोरियाँ हैं, जिनका पता भी नहीं चलता, फिर क्या उपाय किये जा सकते हैं? यह तथ्य भी विचारणीय है।


ऐसा भी हो सकता है कि कोई हमारी रचना का प्रकाशन भी करवा ले, जो उनके नाम से हों। आज सैकड़ों ऑनलाइन एवं मुद्रित पत्रिकायें हैं, जिनके प्रचार-प्रसार इतने सीमित हैं कि किसी को जानकारी होनी संभव भी नहीं।


यदि हम अंतरजाल पर रचना प्रेषित करते हैं, तो चोरी रोकी नहीं जा सकती, यह पक्की बात है। इसका एक ही समाधान मुझे दिखाई देता है कि हमें सम्भलकर रहना चाहिये। तो हमें क्या करना चाहिये।


पहले फेसबुक (मुख पुस्तिका) वाल को लेते हैं।


वाल पर क्या रचना पोस्ट करनी चाहिये? मेरे मत में नहीं, यदि पोस्ट की भी तो आधी-अधूरी अथवा कुछ ऐसी तब्दीली करके कि कोई चुराये भी तो मौलिक से दूरी हो। अथवा ऐसी रचनायें जिनकी चोरी होने से कोई अंतर न पड़ता हो। कभी एकाध दोहा या शे’र या चंद पंक्तियाँ आदि। निर्णय हमें लेना है।


समूह की बात। फेसबुक, व्हाट्स एप समूह आदि।


अनेक समूह ऐसे हैं, जहाँ सदस्यों की संख्या का कोई अता-पता नहीं होता। वे ये भी नहीं जानते कि किसे और क्यों सदस्य बनाया गया है। अनेक लोग यह समझते हैं कि उनकी रचना इतने लोग पढ़ रहे हैं, किन्तु अनेक चोरी कर रहे हैं, इसका अनुमान हमें नहीं होता। अतः मात्र ऐसे समूह में रचना पोस्ट करें, जहाँ इसकी संभावना कम से कम है। जहाँ लगभग सभी जाने-पहचाने लोग हों। फिर कभी भी पूरी रचना का न डालना भी एक उपाय है। एक और युक्ति है अपने ईमेल में ड्राफ्ट के रूप में सेव कर लेना। तब रचना का दिन, तारीख, समय आदि अंकित हो जाता है। ब्लॉग से कोई भी कुछ भी उठा सकता है। अतः मात्र वही डालना चाहिए, जिससे आपको कोई अंतर न पड़ता हो।  


असल में समस्या लोभ संवरण का है। हमें प्रतीत होता है कि इतने लोग वाह कह रहे हैं और एक आत्म-संतुष्टि का भाव आने लगता है। इस भाव पर विजय करना आवश्यक है। फेसबुक पर ‘‘वाह’’ को मात्र एक ‘‘आह’’ समझनी चाहिये। यह वह स्थान नहीं है कि हम अपनी रचना साझा करें।  यदि पसंद हो, तो मात्र कुछ समूह में ही रचना साझा करनी चाहिये। यहाँ तक कि घर-परिवार आदि के फोटो आदि भी साक्षा नहीं करना चाहिये। हम इसके ग़लत उपयोग के बारे में नहीं जानते हैं। 


अब आती है एक अलग प्रकार की चोरी की बात, जिसमें भावों की चोरी की जाती है। ऐसी चोरी को पकड़ना असंभव है, जब तक कि शब्द एक से न हों। भाव एक समान हो सकते हैं और होंगे। लगभग सभी प्रकार के भावों पर रचनायें सदियों से लिखी जा रही हैं और लिखी जाती रहेंगी। अंतर शैली का होता है। कई बार शैली भी मिल जाती है, तब भाषा का अंतर होता है, सम्प्रेषण का अंतर होता है, यदि मौलिक है, अन्यथा चोरी ही कही जायेगी।


कॉपीराइट की बात अपनी जगह ठीक है। यह तब संभव है, जब हमें पता चले। एक बार की बात है, मेरी एक कहानी मध्य प्रदेश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी, बिना मेरी अनुमति के। छपी मेरे नाम से ही थी, केवल यह बात खटकी कि उन्हें कहाँ से मिली। बहुत प्रयास किया, लेकिन कभी संतोषजनक उत्तर न मिल पाया। ख़ैर, बात कॉपीराइट की नहीं, पहले पता चलने की है, यह पता चलना भी कठिन है। अनेक छोटे-छोटे अखबार, पत्र-पत्रिकायें छपती रहती हैं। ऑनलाइन में भी अनेक ब्लॉग, वेवसाइट, पत्रिका आदि हैं। सभी का प्रसार सभी तक नहीं होता। अतः मुख्य बात सावधानी बरतने की ही है। कुछ उपाय मैंने ऊपर सुझाये हैं, सदस्यगण उनका संज्ञान ले सकते हैं।


एक पुरानी कहावत है - सावधानी हटी दुर्घटना घटी। हमें सावधानी बरतनी चाहिये। इसके आलावा अधिक चिंता नहीं करनी चाहिये। फेसबुक, व्हाट्सएप आदि पर अनावश्यक रचनायें प्रेषित करने के लोभ से बचना चाहिये। मात्र अच्छे समूहों तक ही सीमित रहना चाहिये। यह मेरा व्यक्तिगत मत है। ग़ज़ल में ज़मीन की बात अलग होती है, लेकिन मिसरे को लेकर लिखना उचित नहीं है, क्योंकि तब रदीफ़ और क़ाफ़िया भी वही होगा। यह उचित नहीं जान पड़ता मेरी दृष्टि में। अपने-अपने विचार हो सकते हैं। एक उदाहरण देना चाहता हूँ। राहत इन्दौरी साहब की एक ग़ज़ल है -


दोस्ती जब किसी से की जाये
दुश्मनों की भी राय ली जाये


इसी ज़मीन पर मेरी एक ग़ज़ल है, लेकिन रदीफ़ और क़ाफ़िया आदि पूर्णतः भिन्न है, मात्र बह्र एक है।


दोस्ती से जो प्यार हो जाये
ज़िन्दगी ख़ुशगवार हो जाये
मैं तेरी सोच का परिन्दा हूँ
ये परिन्दा हज़ार हो जाये --- सपन

अनेक ऐसे चोर हैं, जो यह नहीं देखते कि चुराने लायक है अथवा नहीं, क्योंकि वे लेखक नहीं होते, बस लोगों के मध्य लेखक बनने का दम्भ भरते हैं, अतः इस बात से निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि चुराने लायक कुछ भी नहीं।


अभी तक हमने देखा कि रचना चोरी एक आम बात है और इससे बचना असंभव है। यदि हम नेट पर कुछ भी रखते हैं। एक और उपाय मैंने कुछ वर्ष पूर्व किया था। जो भी रचना होती थी, उसे सीधे ब्लॉग पर न लिखकर उसके फोटो को पेस्ट करता था। इससे चोरी करने वालों को कॉपी पेस्ट में कठिनाई होती है।


अन्तरजाल पर एक बार रचना डाल देने पर वह सभी के उपयोग के लिये हो जाती है। कॉपीराइट जो अमेरिका में है, उससे उस पर आपका ही अधिकार होता है, किन्तु पुनः न्यायालय आदि जाना पड़ता है, जो किसी साहित्यकार हेतु संभव नहीं। यहाँ भी कुछ नियमादि हैं किन्तु उस झंझट में पड़ना ही क्यों?


फिर भी हताश होने वाली बात कदापि नहीं है, बल्कि सोचने-समझने का विषय है और कड़े निर्णय लेने का है। यदि मन कड़ा कर लिया जाये, तो इससे बचना अत्यधिक सरल है, चाहे वह पूर्णतः न हो, किन्तु अधिकांशतः। एक बात है कि ब्लॉग आदि पर मात्र उतना ही होना चाहिये, जिसे कोई नकल करे भी तो कोई अन्तर न पड़े। फिर ब्लॉग पर तिथि, समय आदि भी अंकित होता है। इसके बाद भी कोई अपना बनाकर कुछ कर ले, तो अधिक कुछ नहीं किया जा सकता। बस एक ही मूलमंत्र है - सावधान रहें।
 

विश्वजीत ‘सपन’

Sunday 4 November 2018

बुरे लोगों से अधिक अच्छे लोगों की चुप्पी घातक है।

गौतम बुद्ध ने कहा था - ‘‘बुरे लोगों के विध्वंस के कारण लोगों को उतना दुःख नहीं होता, जितना कि अच्छे लोगों के कुछ न बोलने के कारण।’’ आज यही स्थिति दिख रही है। यदि हम समाज के समस्त प्रकार के बुरे लोगों की गणना करें, तो उनकी संख्या कुल जनसंख्या की तुलना में नगण्य निकलती है। किन्तु आश्चर्य यह कि वे नगण्य लोग आज अग्रगण्य हो गए हैं और करोड़ों की जनता को दुःख व पीड़ा देने में सक्षम हैं। एक बड़ा कारण यह है कि आज अच्छे लोग चुप रहना पसंद करते हैं। यह चुप्पी अकारण नहीं है। वे कुछ नहीं कहते क्योंकि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि कोई उनकी बात नहीं सुनेगा। अतः वे अनुचित देखकर भी चुपचाप रहते हैं। 

यह प्रवृत्ति समाज को अंधकार के गर्त में धकेलने का कार्य कर रही है। अच्छाई महँगी अवश्य हो गई है, किन्तु समाप्त नहीं हुई है और समाज में अच्छे लोगों की कमी भी नहीं है। ‘न ऊधो का लेना न माधो का देना’ वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले ये अच्छे लोग यदि आज जागरुक हो जायें, तो समाज में बुराइयों का सर्वनाश तत्क्षण ही संभव हो जाएगा। किन्तु यह काम पुनः किसी विध्वंसात्मक प्रणाली से नहीं होना चाहिए। अतः सावधानी बतरनी होगी, क्योंकि कई बार बोलने की जद में अच्छी सोच वाले भी भटक जाते हैं और बंदूक जैसे हथियारों आदि का सहारा लेकर पुनः उसी विध्वंस के समर्थक बन बैठते हैं, जिनसे बचने के लिए उन्होंने बोलना शुरू किया था। आज नक्सलियों का यही हाल है। आतंकियों का यही हाल है। शुरुआत तो इनकी भी कुछ अच्छा करने की थी, लेकिन केवल बुराई ही दामन में बच पाई है। अतः बोलने से हमारा स्पष्ट मतलब इस बात से है कि अनुचित का विरोध करना, हिंसा द्वारा नहीं बल्कि शांति के द्वारा। अनुचित देखने पर आपत्ति जताना, अनुचित करने वाले व्यक्तियों को टोकना। उसे अच्छा करने को कहना। अच्छाई की सीख देना। अनुचित करने वालों को हतोत्साहित करना। ऐसे लोगों को कानून का भय दिखाना आदि। यहाँ एक बात और स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है कि अनुचित वह है, जिसे समाज या शास्त्र कहता है। वह सभी के लिये अनुचित है अथवा नहीं, उस पर कुछ कहना उचित नहीं होगा क्योंकि वह एक अलग विचार का हिस्सा है। 


अक्सर देखा जा सकता है कि हम गलती करने वालों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। तब हमें क्या पड़ी है का फार्मूला हमें भा जाता है। लेकिन हम यह भी नहीं सोचते कि इस प्रकार हम ही उन्हें गलत करने के लिए बढ़ावा दे जाते हैं। जब गलत करने वालों को कोई टोकता नहीं तो उन्हें ऐसा महसूस होता है कि किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि कोई उसे रोक सके या टोक सके या फिर उन्हें ऐसा लगता है कि वह जो कर रहा है, वही ठीक है क्योंकि किसी को कोई आपत्ति नहीं है।


विश्वजीत 'सपन'

Tuesday 2 October 2018

भारत में अंधविश्वास

अभी हाल ही में दिल्ली में एक परिवार के ग्यारह सदस्यों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। इस घटना का तार अंधविश्वास से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। अनेक बार अंधविश्वास के परिणाम दुखद होते हैं। आज भारत में अंधविश्वास की एक पड़ताल करने का प्रयास किया जायेगा।

अंधविश्वास का मुख्य कारण अज्ञानता है अथवा बौद्धिकता एवं शिक्षा की कमी है। इस कारण हम किसी भी प्रकार के अंधविश्वास को स्वीकार कर लेते हैं। अनेक बाबाओं की उपज का एक कारण यही बौद्धिकता की कमी अथवा शिक्षा का अभाव है कि वे सबके सब दुःख दूर कर देंगे। 


अंधविश्वास का नाम सुनते ही मन में भूत, पिशाच, चुड़ैल, डायन जैसे शब्द कौंधने लगते हैं। एक समय था, जब गाँवों में इन नामों को सुनकर ही मन काँप उठता था। आज भी ग्रामीण इलाकों में ये नाम सुनने को मिलते रहते हैं।


दूसरे प्रकार का अंधविश्वास मान्यताओं में देखने को मिलता है, जैसे बिल्ली रास्ता काट गयी, कहीं बाहर जाते समय छींक आ गयी, कौअे ने काँव-काँव किया अथवा हिचकी आ रही है। इनका कोई प्रकृतिक अथवा वैज्ञानिक आधार नहीं पाया जाता, किन्तु अमूमन सभी इनका अनुसरण करते हैं।


तीसरे प्रकार के अंधविश्वास रोगों से मुक्ति दिलाने के लिये झाड़-फूँक आदि के रूप में समाज में देखे जाते हैं, जिनमें वैज्ञानिकता की स्पष्ट कमी दिखाई देती है।


किसी भी वस्तु या विचार का अंधानुकरण ही अंध-विश्वास को बढ़ावा देता है। बाबा राम-रहीम हो अथवा आसाराम। इनका अंधानुकरण किया गया और अंध-विश्वास बढ़ा। यदि हम अपने विवेक खो दें, तो सामने उज्ज्वल भविष्य दिखाई देता है, जो होता नहीं है।


एक और प्रकार का अंधविश्वास दिखाई देता है, जो हमें शुभ-अशुभ की मान्यताओं को मानने पर विवश करता है। कम बौद्धिकता के कारण किसी भी प्रकार की बात का प्रभाव हमारे जीवन पर गहरा हो जाता है। हम मान लेते हैं कि कुछ अशुभ होगा। यहाँ तक कि शिक्षित समाज भी यह समझकर मान लेता है कि चलो कुछ अशुभ न हो, तो ऐसा करने में क्या जाता है। तो इस बात का प्रमाण मिल जाता है कि अंध-विश्वास की जड़ें भारतीय समाज में गहरी हैं।


कुछ आस्था का प्रश्न होता है और हम आसानी से उसे मान लेते हैं। यहाँ अंध-विश्वास को प्रचलित प्रथाओं से विलग रखना होगा, क्योंकि अनेक प्रथाएँ वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित भी हो चुकी हैं, जैसे गोबर से घर को लीपना, आँगन में तुलसी का पौधा लगाना आदि। आवश्यकता है कि हम किसे माने और किसे नहीं? इसका आख़िर आधार क्या हो? क्या मात्र संयोग को अंध-विश्वास में बदल देना हमारी मनोवृत्ति को दर्शाता है? हम मानसिक रूप से पिछड़े तो नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न मन को उद्वेलित करते हैं। 


इस बात से सबकी सहमति अवश्य होगी कि अंध-विश्वास से बचना चाहिये। यह कभी किसी का भला नहीं करता, बल्कि नुकसान ही करता है, परन्तु ऐसा क्या कारण है कि अच्छे-अच्छे बौद्धिक लोग भी इसका पालन करते दृष्टिगत होते हैं।  


विश्वास एवं अंध-विश्वास के मध्य बारीक अंतर ही है। विवेक के प्रयोग से इसे जाना भी जा सकता, इसे समझा भी जा सकता है एवं मुक्ति भी पायी जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसका निर्धारण कैसे हो? जिस कार्य के करने से कोई लाभ न दिखे, न ही वह तर्कसंगत हो, तो उसे मानने का कोई अर्थ नहीं होता। ऐसी बातों में ही बिल्ली के रास्ता काटने अथव बाहर निलते समय छींक आने वाली बातें हैं। 2008 में गृह प्रवेश के दौरान मेरे पड़ोसी ने कहा कि आप गृह प्रवेश अभी न करें, क्योंकि गृह प्रवेश के बाद पहला पर्व होली नहीं होना चाहिये। मैंने पूछा इससे क्या होता है? उन्होंने कहा बड़ा अपशकुन होता है। मगर हमने गृह प्रवेश किया, कुछ नहीं हुआ। बात यह नहीं कि कुछ होने वाला था, यदि मेरे मन को भी यह बात प्रभावित कर जाती, तो अवश्य कुछ न कुछ संयोग होता, जिसे हम अपशकुन मान लेते। इस तथ्य को खंगालने की आवश्यकता है। किसी के कुछ कहने अथवा मान्यताओं को परखने की आवश्यकता होती है। अभी हाल ही में एक और गृह प्रवेश वाले दिन हमें सभी ने कहा कि पूजा के दिन उसी घर में पूजा करने वाले में से किसी एक को सोना अवश्य होता है। ऐसी संभावना न थी, कोई नहीं सोया, मगर कुछ न हुआ। सोचने की बात है कि जो संभव है और उससे कुछ नुकसान नहीं, तो मान लेने में हर्ज नहीं, किन्तु संभव नहीं, तो बिना मन में अटकाये, उसे बाहर कर देना ही समाधान है। 


यह पारिवारिक माहौल की बात भी होती है। हमने अपने परिवार में किसी भी प्रकार के अंध-विश्वास को घर करने नहीं दिया है। कोई कुछ कहते भी हैं, तो हम सभी मिलकर इस पर निर्णय लेते हैं कि क्या वह मानना उचित है भी या नहीं। बात माहौल की होती है। कहने वाले अनेक प्रकार की बातें एवं सुझाव देते ही रहते हैं कि ये करना ठीक नहीं अथवा वो करना उचित होगा। हमें वही करना चाहिये, जो हमें उचित लगता है न कि फजूल की बातों के प्रभाव में आना चाहिये।  


कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि बड़े-बुज़ुर्गों के मान देने के लिये भी कुछ न कुछ करना पड़ता है, जो अंततः अंध-विश्वास बन जाता है। क्या यह अनुचित है? विचार करें, तो नहीं, क्योंकि यदि यह मात्र मान देने के लिये है, तब तो वह सही है। यदि उसी का प्रभाव मन पर पड़ता है, तब वह अंध-विश्वास में तब्दील हो जाता है। 


मंदिर के सामने से गुज़रते समय स्वयमेव श्रद्धा से सिर झुक जाता है, यह अंधविश्वास नहीं, बल्कि आस्था है, संस्कार है। मन का विश्वास है। इसके बाद भी तर्क किया जा सकता है, किन्तु मात्र तर्क के लिये ही। जीवन को समझकर एवं उचित-अनुचित का निर्णय लेकर तथा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करके ही उचित जीवन यापन संभव है। दार्शनिक तथ्य को अंधविश्वास की तुला पर तौलना उचित नहीं जान पड़ता है।  


पूजा-अर्चना को अंध-विश्वास की श्रेणी में रखना उचित प्रतीत नहीं होता। उसके प्रकार को रखना उचित होगा। यदि बाह्याडम्बर के साथ की जाये, तो अंध-विश्वास है, किन्तु मन की शान्ति एवं जगत कल्याण के लिये की जाये, तो यह ऊर्जा प्रदान करती है। यह वैज्ञानिक तथ्य है संसार में समस्त जीव ऊर्जा ही है। 


जब तक पूजा मन की शान्ति एवं जगत कल्याण का साधन है, अंध-विश्वास नहीं है। जब यह कर्मकाण्ड आदि अथवा अनावश्यक अंध-विश्वासों के साथ किया जाये, तो उससे जुड़े समस्त अनावश्यक तत्त्व अंध-विश्वास की श्रेणी में आ जाते हैं। प्रतिदिन घर एक दिया जलाकर पूजा करना, ध्यान करना आदि अंध-विश्वास नहीं है। हाँ, मंदिर जाकर बाह्याडंबर करना अंध-विश्वास अवश्य है, क्योंकि ईश्वर कण-कण में। मात्र मंदिर में नहीं। वह घर में भी है। तो इसके प्रकार में अंध-विश्वास है स्वयं पूजा-अर्चना में नहीं, यदि उसका ध्येय मन की शान्ति है। यह प्राप्त होती है। इसे महसूस किया जा सकता है। 


कई लोग कहते दिखाई देते हैं कि ईश्वर नहीं हैं, क्योंकि उनको देखा नहीं गया। असल में तर्क की कोई सीमा नहीं होती। मान लिया हमने ईश्वर को नहीं देखा, किन्तु तर्क यह भी है कि क्या हमने जिसे नहीं देखा है, वह नहीं है? पहले हमने विमान नहीं देखा था, पहले बल्ब नहीं देखा था, पहले हमने रेलगाड़ी नहीं देखी थी, लेकिन वे थीं, चूँकि हमने नहीं देखा इस कारण उसका अस्तित्व नहीं है अतार्किक कथन है। हमारे पास देखने की क्षमता नहीं है, सामर्थ्य नहीं है, इस कारण नहीं देख पाते। इस संसार को कौन संचालित करता है? क्या बच्चा जन्म लेता है बिना किसी कारण के और मर जाता है बिना किसी कारण के? इतनी जटिल शारीरिक तत्त्वों को किसने बनाया? क्या ये सभी प्रश्न हमें निरुत्तर नहीं करते? 


तर्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके बाद भी एक स्थान पर आकर कहना पड़ता है कि जो सत्य है उसे ही स्वीकार करना चाहिये। आस्था न तो निराधार है और न ही अंध-विश्वास - यह एक भावना है। भावना को देखा नहीं जा सकता, बस अनुभव किया जा सकता है, महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार तो प्रेम की भावना, ममता की भावना सभी निराधार हो जायेंगीं। 


सत्य ही जीवन का आधार होना चाहिये। मनुष्य को सत्ययोग में तत्पर रहना चाहिये, क्योंकि सत्य में ही अमृततत्त्व है। उसे अपनी इन्द्रियों का दमन करना चाहिये। अमृत एवं मृत्यु दोनों ही एक शरीर में विद्यमान होते हैं। मोह से मृत्यु प्राप्त होती है, जबकि सत्य से अमरत्व प्राप्त होता है। हमें हमेशा ही सत्य की खोज करनी चाहिये। हिंसा से दूर रहना चाहिये। काम एवं क्रोध को मन से निकाल देना चाहिये। सुख-दुःख में समान रहना चाहिये। जिसमें दूसरों को सुख मिले, ऐसा आचरण करना चाहिये, तब वह मृत्यु के भय से मुक्त हो सकता है। यह भय से मुक्ति ही समस्त प्रकार के अज्ञान के अंधकार को दूर कर देता है।


निष्कर्ष यही कि अंध-विश्वास किसे कहा जाये अथवा नहीं, इस पर भी अत्यधिक मतभेद है। अपनी-अपनी व्यक्तिगत बातों, विचारों, अनुभवों एवं मतों के अनुसार उनके वर्ग किये जा सकते हैं। दो बातें अवश्यरूपेण निष्कर्ष कही जा सकती हैं कि भारतवर्ष में अंध-विश्वास का बोलबाला आत्यधिक है और निकट भविष्य में इनसे छुटकारा संभव नहीं प्रतीत होता।
 

विश्वजीत ‘सपन’  

Sunday 15 April 2018

नैतिकता का महत्त्व - एक चर्चा

नैतिकता साहित्य में अत्यधिक प्रयुक्त शब्द है। यह ‘नीति’ शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। प्रापणार्थक ‘णीञ्’ धातु से भावार्थक ‘क्तिन’ प्रत्यय के मिलने से ‘नीति’ शब्द बना है। ‘णीञ्’ धातु का अर्थ है, ले जाना। इसे ही हिन्दी में ‘नी’ धातु कहा गया है। तो मानव को सही दिशा में लेकर जाना ही नीति है। इसी से ‘नैतिक’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है, नीति सम्मत। शब्दकोष में इसके अनेक अर्थ दिये गये हैं, किन्तु सामान्य रूप से इसका अर्थ हुआ - मानव व्यवहार का उचित अथवा न्यायसंगत होना।

भारतीय शास्त्रों में नीति शब्द पर अत्यधिक चर्चा हुई है। हिन्दी में श्री भोलानाथ तिवारी ने इसकी परिभाषा दी है - ‘‘समाज को स्वस्थ एवं संतुलित पथ पर अग्रसर करने एवं व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की उचित रीति से प्राप्ति कराने के लिये जिन विधि या निषेधमूलक वैयक्तिक एवं सामाजिक नियमों का विधान देश, काल और पात्र के संदर्भ में किया जाता है, उन्हें नीति शब्द से अभिहित करते हैं।’’


तो कहा जा सकता है कि नीति शब्द कर्म एवं शील का विवेचन ही है। दार्शनिक दृष्टि से देखें, तो सत् और असत् का विवेचन ही नैतिकता का मूल प्रश्न है। यह प्रश्न सदैव हम सभी के समक्ष उपस्थित रहा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि नीति नियमों एवं अनुशासनों की विवेचना ही है, जो व्यक्ति एवं समाज की स्थिति के कारण भी हैं और लक्ष्य भी। असल में नीति का केन्द्रीय तत्त्व न्याय है, क्योंकि हम जानते हैं कि जहाँ अन्याय होता है, वहाँ अनीति हैं और जहाँ न्याय होता है, वहाँ नीति है, तो नीति वस्तुतः दण्डनीति ही हुई क्योंकि न्याय से चलने वाले को पुरस्कार और अन्याय से चलने वाले को दण्ड यही नीति कहती है। इस प्रकार नीति या नैतिकता समाज में शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने में सहायक होती है।


किसी भी समाज में मानव व्यवहार के लिये अनेक नियमादि बनाये जाते हैं और उनका पालन करने वाला ही नैतिक कहा जाता है। तो किसी भी सुसंस्कृत समाज में नैतिकता का महत्त्व अत्यधिक कहा जायेगा। इसी कारण समाज में आचार-व्यवहार बना रहता है, लोग अनुचित करने से परहेज करते हैं। 


यह नीति कोई स्थायी वस्तु नहीं है। इसमें देश, काल आदि का प्रभाव पड़ता रहता है और इसी कारण हर काल में इस पर चर्चा होती रही है। आज हमारे देश में जहाँ नैतिकता का मूल स्वरूप ही बदल गया है, तो बहुत ही आवश्यक है कि हम इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार करें और देखें कि आज नैतिकता के क्या मायने हैं? क्या वे नीति सम्मत हैं? क्या उनमें भटकाव हैं? आइये इस पर एक चर्चा करते हैं।


नीतिशास्त्र बहुत ही वृहद् विषय है और इस अत्यधिक चर्चा की जा सकती है, किन्तु इसकी महत्ता को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र का अर्थ मानवीय आचरण के उन वास्तविक आदर्शों को ढूँढना है, जिससे यह निर्णय लिया जा सके कि उन कर्मों का औचित्य है अथवा नहीं। पर क्या हर प्रकार की क्रिया का नैतिक निर्णय संभव है? कदापि नहीं। एक सर्प के काटने से उसके विष के कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गयी, तो क्या इसे उस सर्प का अनैतिक कर्म कहेंगे? तो सभी क्रियायें नैतिकता से बँधी नहीं हो सकतीं। यह सुन्दर एवं दार्शनिक प्रश्न है। 


लोग कहते पाये जाते हैं कि आज नैतिकता का पाठ पढ़ाया ही नहीं जाता, तो इस बात से सहमत होते हुए भी असहमति है कि आज नैतिकता का पाठ पढ़ाया ही नहीं जाता। यदि ऐसा होता तो हम सभी नैतिकता की बातें ही नहीं करते। सच्चाई यही है कि समाज में आज भी नैतिकता जीवित है और आज भी हम सत्य के पक्षधर हैं; विशेषकर भारतीय समाज एवं परिवार में। यदि अधिकतर अनैतिक हो जायेंगे, तो समाज का स्वरूप ऐसा न होगा। तब वह स्वरूप होगा, जो सीरिया में है, आईएसआईएस के समाज में है।


ऐसी चिंतायें हो रही हैं कि सारा जगत अनैतिकता के दलदल में फँस चुका है और अब दुनिया में नैतिक कहने के लिये कुछ भी न बचा, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि तब कोई भी व्यक्ति अपना जीवन नहीं जी पाता। सब जगह केवल और केवल अनाचार एवं दुराचार ही होते और कुछ भी न होता। क्या ऐसा समाज है? सबसे बड़ी यही समस्या है कि आज हम यही मानते हैं कि हम तो नैतिक हैं, किन्तु अन्य सभी अनैतिक। समाज में अनैतिकता हमेशा रही है और रहेगी, परन्तु इससे निराश नहीं होना चाहिए। हमें समाज की भलाई की ओर ध्यान देना चाहिए। जीवन सकारात्मक सोच से चलता है। हम क्या करें कि नैतिकता का पाठ सभी को मिले, इस पर विचार करना होगा। जीवन को सुन्दर बनाना होगा। 


अंतरात्मा का स्वर यदि हमने सुन लिया तो हम कभी कोई अनैतिक कार्य नहीं करेंगे।


परिवार एवं समाज अपनी जिम्मेदारियों से विलग नहीं हुआ है, अन्यथा कुछ भी अच्छा न होता। नैतिकता के मूल्य बदले अवश्य हैं, हम वेदों की नैतिकता से दूर अवश्य हुए हैं, किन्तु सब-कुछ समाप्त नहीं हुआ है। आज भी परिवार अपने बच्चों को उचित मार्गदर्शन देता है। समाज भी उन्हें उचित मार्गदर्शन देता है। कुछ भटके हुओं के कारण समस्त परिवार एवं समस्त समाज का निरादर नहीं किया जा सकता। 


हमारा अनुभव व्यक्तिगत होता है। यह हमारी सोच को परिवर्तित करता है, किन्तु हमारा अनुभव ही सभी का अनुभव हो, ऐसा नहीं होता। देश एवं समाज को एक निष्पक्ष दृष्टि से देखने की आवश्यकता होती है। नैतिकता किसी भी समाज की आवश्यकता होती है और समाज का आधार इसी पर टिका होता है। प्रत्येक समाज में नैतिकता का मानदण्ड अपना होता है। और वह उन्हीं मानदण्डों पर चलता है। समय के साथ उन मानदण्डों में परिवर्तन भी होते हैं और वे आवश्यक भी होते हैं। समस्त मानवीय समाज एक समाज हो, आवश्यक नहीं, किन्तु आदर्श में उन्हें एक होना चाहिए। पाश्चात्य सभ्यता के अपने मानदण्ड हैं, उन्हें पूरी तरह से अनैतिक मान लेना हमारी भूल होगी। 


जीवन में मात्र नैतिकता एवं अनैतिकता ही नहीं है। इसे केवल इस तुला पर तौलना उचित नहीं है। जीवन के अनेक आयाम होते हैं और नैतिकता या अनैतिकता उन्हीं आयामों में से एक है। अतः जब तक हम जीवन को सम्पूर्णता में नहीं देखेंगे, तब तक एक भटके राही की भाँति राह ढूँढते रहेंगे। अतः सागर से जीवन को समझने का प्रयास होना चाहिए। यही जीवन की एक बड़ी सच्चाई है, जिससे हम अक्सर दूर रहते हैं अथवा भागते हैं।


परिवर्तन तो नियम है ही, किन्तु जितनी शीघ्रता से हमने दुनिया के समाप्त होने का अनुमान लगा लेते हैं, उसमें अत्यधिक शीघ्रता दिखती है। हमारे पूर्वज भी कुछ ऐसा ही कह कर गये थे, लेकिन समाज अभी भी है और जीवन अभी भी है। हाँ रहने के तरीके में परिवर्तन अवश्य हुआ है और यह आगे भी होता रहेगा। जीवन के मूल्य समय के साथ बदलते ही हैं, क्योंकि परिवर्तन ही नियम है। यह कभी संभव नहीं कि सभी बदलाव हमारे मनोनुकूल हों।
 

विश्वजीत ‘सपन’