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Tuesday 2 October 2018

भारत में अंधविश्वास

अभी हाल ही में दिल्ली में एक परिवार के ग्यारह सदस्यों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। इस घटना का तार अंधविश्वास से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। अनेक बार अंधविश्वास के परिणाम दुखद होते हैं। आज भारत में अंधविश्वास की एक पड़ताल करने का प्रयास किया जायेगा।

अंधविश्वास का मुख्य कारण अज्ञानता है अथवा बौद्धिकता एवं शिक्षा की कमी है। इस कारण हम किसी भी प्रकार के अंधविश्वास को स्वीकार कर लेते हैं। अनेक बाबाओं की उपज का एक कारण यही बौद्धिकता की कमी अथवा शिक्षा का अभाव है कि वे सबके सब दुःख दूर कर देंगे। 


अंधविश्वास का नाम सुनते ही मन में भूत, पिशाच, चुड़ैल, डायन जैसे शब्द कौंधने लगते हैं। एक समय था, जब गाँवों में इन नामों को सुनकर ही मन काँप उठता था। आज भी ग्रामीण इलाकों में ये नाम सुनने को मिलते रहते हैं।


दूसरे प्रकार का अंधविश्वास मान्यताओं में देखने को मिलता है, जैसे बिल्ली रास्ता काट गयी, कहीं बाहर जाते समय छींक आ गयी, कौअे ने काँव-काँव किया अथवा हिचकी आ रही है। इनका कोई प्रकृतिक अथवा वैज्ञानिक आधार नहीं पाया जाता, किन्तु अमूमन सभी इनका अनुसरण करते हैं।


तीसरे प्रकार के अंधविश्वास रोगों से मुक्ति दिलाने के लिये झाड़-फूँक आदि के रूप में समाज में देखे जाते हैं, जिनमें वैज्ञानिकता की स्पष्ट कमी दिखाई देती है।


किसी भी वस्तु या विचार का अंधानुकरण ही अंध-विश्वास को बढ़ावा देता है। बाबा राम-रहीम हो अथवा आसाराम। इनका अंधानुकरण किया गया और अंध-विश्वास बढ़ा। यदि हम अपने विवेक खो दें, तो सामने उज्ज्वल भविष्य दिखाई देता है, जो होता नहीं है।


एक और प्रकार का अंधविश्वास दिखाई देता है, जो हमें शुभ-अशुभ की मान्यताओं को मानने पर विवश करता है। कम बौद्धिकता के कारण किसी भी प्रकार की बात का प्रभाव हमारे जीवन पर गहरा हो जाता है। हम मान लेते हैं कि कुछ अशुभ होगा। यहाँ तक कि शिक्षित समाज भी यह समझकर मान लेता है कि चलो कुछ अशुभ न हो, तो ऐसा करने में क्या जाता है। तो इस बात का प्रमाण मिल जाता है कि अंध-विश्वास की जड़ें भारतीय समाज में गहरी हैं।


कुछ आस्था का प्रश्न होता है और हम आसानी से उसे मान लेते हैं। यहाँ अंध-विश्वास को प्रचलित प्रथाओं से विलग रखना होगा, क्योंकि अनेक प्रथाएँ वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित भी हो चुकी हैं, जैसे गोबर से घर को लीपना, आँगन में तुलसी का पौधा लगाना आदि। आवश्यकता है कि हम किसे माने और किसे नहीं? इसका आख़िर आधार क्या हो? क्या मात्र संयोग को अंध-विश्वास में बदल देना हमारी मनोवृत्ति को दर्शाता है? हम मानसिक रूप से पिछड़े तो नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न मन को उद्वेलित करते हैं। 


इस बात से सबकी सहमति अवश्य होगी कि अंध-विश्वास से बचना चाहिये। यह कभी किसी का भला नहीं करता, बल्कि नुकसान ही करता है, परन्तु ऐसा क्या कारण है कि अच्छे-अच्छे बौद्धिक लोग भी इसका पालन करते दृष्टिगत होते हैं।  


विश्वास एवं अंध-विश्वास के मध्य बारीक अंतर ही है। विवेक के प्रयोग से इसे जाना भी जा सकता, इसे समझा भी जा सकता है एवं मुक्ति भी पायी जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसका निर्धारण कैसे हो? जिस कार्य के करने से कोई लाभ न दिखे, न ही वह तर्कसंगत हो, तो उसे मानने का कोई अर्थ नहीं होता। ऐसी बातों में ही बिल्ली के रास्ता काटने अथव बाहर निलते समय छींक आने वाली बातें हैं। 2008 में गृह प्रवेश के दौरान मेरे पड़ोसी ने कहा कि आप गृह प्रवेश अभी न करें, क्योंकि गृह प्रवेश के बाद पहला पर्व होली नहीं होना चाहिये। मैंने पूछा इससे क्या होता है? उन्होंने कहा बड़ा अपशकुन होता है। मगर हमने गृह प्रवेश किया, कुछ नहीं हुआ। बात यह नहीं कि कुछ होने वाला था, यदि मेरे मन को भी यह बात प्रभावित कर जाती, तो अवश्य कुछ न कुछ संयोग होता, जिसे हम अपशकुन मान लेते। इस तथ्य को खंगालने की आवश्यकता है। किसी के कुछ कहने अथवा मान्यताओं को परखने की आवश्यकता होती है। अभी हाल ही में एक और गृह प्रवेश वाले दिन हमें सभी ने कहा कि पूजा के दिन उसी घर में पूजा करने वाले में से किसी एक को सोना अवश्य होता है। ऐसी संभावना न थी, कोई नहीं सोया, मगर कुछ न हुआ। सोचने की बात है कि जो संभव है और उससे कुछ नुकसान नहीं, तो मान लेने में हर्ज नहीं, किन्तु संभव नहीं, तो बिना मन में अटकाये, उसे बाहर कर देना ही समाधान है। 


यह पारिवारिक माहौल की बात भी होती है। हमने अपने परिवार में किसी भी प्रकार के अंध-विश्वास को घर करने नहीं दिया है। कोई कुछ कहते भी हैं, तो हम सभी मिलकर इस पर निर्णय लेते हैं कि क्या वह मानना उचित है भी या नहीं। बात माहौल की होती है। कहने वाले अनेक प्रकार की बातें एवं सुझाव देते ही रहते हैं कि ये करना ठीक नहीं अथवा वो करना उचित होगा। हमें वही करना चाहिये, जो हमें उचित लगता है न कि फजूल की बातों के प्रभाव में आना चाहिये।  


कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि बड़े-बुज़ुर्गों के मान देने के लिये भी कुछ न कुछ करना पड़ता है, जो अंततः अंध-विश्वास बन जाता है। क्या यह अनुचित है? विचार करें, तो नहीं, क्योंकि यदि यह मात्र मान देने के लिये है, तब तो वह सही है। यदि उसी का प्रभाव मन पर पड़ता है, तब वह अंध-विश्वास में तब्दील हो जाता है। 


मंदिर के सामने से गुज़रते समय स्वयमेव श्रद्धा से सिर झुक जाता है, यह अंधविश्वास नहीं, बल्कि आस्था है, संस्कार है। मन का विश्वास है। इसके बाद भी तर्क किया जा सकता है, किन्तु मात्र तर्क के लिये ही। जीवन को समझकर एवं उचित-अनुचित का निर्णय लेकर तथा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करके ही उचित जीवन यापन संभव है। दार्शनिक तथ्य को अंधविश्वास की तुला पर तौलना उचित नहीं जान पड़ता है।  


पूजा-अर्चना को अंध-विश्वास की श्रेणी में रखना उचित प्रतीत नहीं होता। उसके प्रकार को रखना उचित होगा। यदि बाह्याडम्बर के साथ की जाये, तो अंध-विश्वास है, किन्तु मन की शान्ति एवं जगत कल्याण के लिये की जाये, तो यह ऊर्जा प्रदान करती है। यह वैज्ञानिक तथ्य है संसार में समस्त जीव ऊर्जा ही है। 


जब तक पूजा मन की शान्ति एवं जगत कल्याण का साधन है, अंध-विश्वास नहीं है। जब यह कर्मकाण्ड आदि अथवा अनावश्यक अंध-विश्वासों के साथ किया जाये, तो उससे जुड़े समस्त अनावश्यक तत्त्व अंध-विश्वास की श्रेणी में आ जाते हैं। प्रतिदिन घर एक दिया जलाकर पूजा करना, ध्यान करना आदि अंध-विश्वास नहीं है। हाँ, मंदिर जाकर बाह्याडंबर करना अंध-विश्वास अवश्य है, क्योंकि ईश्वर कण-कण में। मात्र मंदिर में नहीं। वह घर में भी है। तो इसके प्रकार में अंध-विश्वास है स्वयं पूजा-अर्चना में नहीं, यदि उसका ध्येय मन की शान्ति है। यह प्राप्त होती है। इसे महसूस किया जा सकता है। 


कई लोग कहते दिखाई देते हैं कि ईश्वर नहीं हैं, क्योंकि उनको देखा नहीं गया। असल में तर्क की कोई सीमा नहीं होती। मान लिया हमने ईश्वर को नहीं देखा, किन्तु तर्क यह भी है कि क्या हमने जिसे नहीं देखा है, वह नहीं है? पहले हमने विमान नहीं देखा था, पहले बल्ब नहीं देखा था, पहले हमने रेलगाड़ी नहीं देखी थी, लेकिन वे थीं, चूँकि हमने नहीं देखा इस कारण उसका अस्तित्व नहीं है अतार्किक कथन है। हमारे पास देखने की क्षमता नहीं है, सामर्थ्य नहीं है, इस कारण नहीं देख पाते। इस संसार को कौन संचालित करता है? क्या बच्चा जन्म लेता है बिना किसी कारण के और मर जाता है बिना किसी कारण के? इतनी जटिल शारीरिक तत्त्वों को किसने बनाया? क्या ये सभी प्रश्न हमें निरुत्तर नहीं करते? 


तर्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके बाद भी एक स्थान पर आकर कहना पड़ता है कि जो सत्य है उसे ही स्वीकार करना चाहिये। आस्था न तो निराधार है और न ही अंध-विश्वास - यह एक भावना है। भावना को देखा नहीं जा सकता, बस अनुभव किया जा सकता है, महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार तो प्रेम की भावना, ममता की भावना सभी निराधार हो जायेंगीं। 


सत्य ही जीवन का आधार होना चाहिये। मनुष्य को सत्ययोग में तत्पर रहना चाहिये, क्योंकि सत्य में ही अमृततत्त्व है। उसे अपनी इन्द्रियों का दमन करना चाहिये। अमृत एवं मृत्यु दोनों ही एक शरीर में विद्यमान होते हैं। मोह से मृत्यु प्राप्त होती है, जबकि सत्य से अमरत्व प्राप्त होता है। हमें हमेशा ही सत्य की खोज करनी चाहिये। हिंसा से दूर रहना चाहिये। काम एवं क्रोध को मन से निकाल देना चाहिये। सुख-दुःख में समान रहना चाहिये। जिसमें दूसरों को सुख मिले, ऐसा आचरण करना चाहिये, तब वह मृत्यु के भय से मुक्त हो सकता है। यह भय से मुक्ति ही समस्त प्रकार के अज्ञान के अंधकार को दूर कर देता है।


निष्कर्ष यही कि अंध-विश्वास किसे कहा जाये अथवा नहीं, इस पर भी अत्यधिक मतभेद है। अपनी-अपनी व्यक्तिगत बातों, विचारों, अनुभवों एवं मतों के अनुसार उनके वर्ग किये जा सकते हैं। दो बातें अवश्यरूपेण निष्कर्ष कही जा सकती हैं कि भारतवर्ष में अंध-विश्वास का बोलबाला आत्यधिक है और निकट भविष्य में इनसे छुटकारा संभव नहीं प्रतीत होता।
 

विश्वजीत ‘सपन’  

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