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Sunday 28 April 2019

हिन्दी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव



    किसी भी साहित्य पर उसकी प्राचीन भाषा एवं संस्कृति तथा उत्पत्ति के समय वर्तमान साहित्य का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। चूँकि हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ही संस्कृत भाषा से हुई है और लगभग समस्त हिन्दी व्याकरण भी संस्कृत आधारित है, तो यह प्रभाव अत्यधिक रहा। समृद्ध संस्कृत साहित्य का प्रभाव हिन्दी ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय साहित्य पर अत्यधिक है। आज हिन्दी भाषा का एक पृथक अस्तित्व है। 


संस्कृत भाषा के साहित्य को प्रायः दो भागों में बाँटा जाता है - वैदिक एवं लौकिक। वैदिक साहित्य के चार चरण माने गये हैं - संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद/आरण्यक एवं सूत्र-ग्रन्थ। इसी समय पाणिनि का व्याकरण आया, जिसका प्रभाव वैदिक एवं लौकिक संस्कृत साहित्य पर समान रूप से पड़ा। जब हिन्दी साहित्य पर संस्कृत के प्रभाव की बात करते हैं, तो वैदिक से लेकर लौकिक साहित्य को देखना होगा। यह अलग विषय है कि कबीर या जायसी जैसे विद्वानों ने संभव है कि वेदों को न पढ़ा हो, किन्तु उनके साहित्य पर उपनिषदों की छाया अवश्य दिखाई पड़ती है। संभव है; उन कवियों ने उपनिषदों को भाषा में सुना हो अथवा उन्हें मौखिक परम्परा से इनकी जानकारियाँ मिली हों। 


    परीक्षण करने पर पता चलता है कि यह प्रभाव दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - मौलिक और परम्परागत। मौलिक प्रभाव की दो श्रेणियाँ हैं - शुद्ध एवं मिश्र। जो प्रभाव अध्ययन से आये उन्हें शुद्ध कहा गया और जो श्रवण से आये उन्हें मिश्र। जब हम वेद, उपनिषद, महाकाव्य आदि का अध्ययन करते हैं, तो उनके विचार आदि स्वयमेव हमारे लेखन आदि में समाविष्ट हो जाते हैं। उस प्रभाव को शुद्ध कहा गया है। कई बार उन विषयों को हम सुनते हैं। कभी किसी से बातचीत होती है और चर्चा में हम उन विषयों को जान लेते हैं, तब प्रभाव शुद्ध नहीं रहता क्योंकि पठन नहीं हुआ है। इसमें जो बात समझ आती है मात्र उनका ही प्रभाव होता है, अतः मिश्र की श्रेणी में गिना जाता है। परम्परागत प्रभाव में परिवर्तन की संभावना अधिक मिलती है, जो समय के साथ परिमार्जित होती रही है। परम्परागत प्रभाव हमें परम्परा से मिलता है। अनेक प्रकार की वैदिक एवं लौकिक परम्परायें हमारे जीवन में हैं और समय के साथ उनमें बदलाव भी होते रहते हैं, लेकिन उनका प्रभाव हमारे लेखन और साहित्य पर सहसा ही पड़ता रहता है। 


    साधारण भाषा में ईश्वर की सत्ता को मानने वाले को ‘आस्तिक’ एवं न मानने वाले को ‘नास्तिक’ कहते हैं। भारतीय दर्शनों में ‘आस्तिक’ का अर्थ वेद की प्रामाणिकता में विश्वास होना है, ‘नास्तिक’ का अर्थ है जो वेद की निंदा करता है अथवा उसका निषेध करता है। उपनिषद के बाद अनेक नास्तिक मत का जन्म हुआ, यथा अक्रियावाद, यदृच्छावाद, नियतिवाद आदि। अवैदिक दर्शनों में सर्वाधिक प्राचीन मत चार्वाक दर्शन का माना जाता है और उनके ही दर्शन को ‘लोकायत’ कहा जाता है। ये वेद और उनकी मान्यताओं का खण्डन करते हैं। ये जगत् को आश्रय-रहित एवं अनीश्वर मानते हैं। ये स्त्री-पुरुष को ही विकास मानते हैं और काम को प्रमुख मानते हैं। वेदान्त अथवा अद्वैतवाद का सिद्धान्त बहुत प्रचीन रहा है। अद्वैतवाद में ब्रह्म और आत्मा की अनन्यता और उनकी भिन्नता का व्यावहारिक एवं अनित्य रूप का प्रतिपादन किया है। इसमें जीव एवं ब्रह्म का संबंध, ब्रह्म का संबंध एवं मोक्ष विचार किया गया है। इनका सीधा प्रभाव हिन्दी साहित्य पर दिखता है। 


    स्मृति साहित्य का संबंध प्रथाओं से है, जिसका प्रभाव सीधा देखा जा सकता है। पुराण का अर्थ इतिहास होता है और पौराणिक साहित्य का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर बहुत पड़ा। प्राचीन ग्रन्थ महाभारत से भी अधिक भागवत का प्रभाव मध्यकालीन कवियों में अत्यधिक देखा जा सकता है, जिसमें भगवान् नारायण की लीला-कथायें संकलित हैं। साथ महाभारत के अंश ‘गीता’ का प्रभाव अधिक दिखता है। इसके साथ ही साथ तांत्रिक साहित्य (वैष्णवागम, शैवागम, शाक्तागम), महाकाव्य (रामायण, महाभारत, कुमार संभवम्), खण्डकाव्य (मेघदूत), स्फुट काव्य (नीतिशतक), कथा साहित्य (कथा सरित्सागर), नाट्य साहित्य (अभिज्ञान शाकुंतल) एवं अनेक काव्यशास्त्रों का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर अत्यधिक दिखाई देता है। 


    संस्कृत एक समृद्ध भाषा रही है और उसका साहित्य इतना विशाल है कि समस्त विश्व इसका ऋण मानता है। हिन्दी साहित्य में चाहे वेद का प्रत्यक्ष प्रभाव न दिखता हो, किन्तु उपनिषदों के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है। उसके बाद के लौकिक साहित्य का प्रभाव अत्यधिक दिखता है, जिस पर मंथन किया जा सकता है। 


    संस्कृत साहित्य ने हिन्दी साहित्य को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है। यह प्रभाव कहीं-कहीं पर आकृतिमूलक और कहीं पर सिद्धान्तमूलक दिखाई पड़ता है। हिन्दी साहित्य के रूप एवं उसकी शाखाओं पर आकृतिमूलक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। कथाओं एवं घटनाओं पर विस्तारमूलक प्रभाव दिखता है। धर्म, दर्शन एवं काव्य-पद्धति पर सिद्धान्तमूलक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस सिद्धान्तमूलक प्रभाव के अन्तर्गत ही सदाचार, वैराग्य, भक्ति, योग, मनोवृत्ति, दर्शन-विचार एवं काव्य-शास्त्र आदि का समावेश स्वयमेव हो जाता है। 


    जहाँ तक ऋग्वेद की बात है, तो अकेले कवर्ग के कितने ही शब्द तब से आज तक चले आये हैं और हिन्दी के रोम-रोम में बस गये हैं, यथा कवि, कर्म, कन्या, कपिल, कपि, कपोत, करण, कर्ण, कर्ता, कला, कल्प आदि। अनेक शब्द ज्यों के त्यों हैं और अनेक कुछ बदलाव के साथ मिलते हैं। इसकी सूची बड़ी लम्बी है। यदि उचित दृष्टि से परीक्षण किया जाता है, तो वैदिक संस्कृत ही हिन्दी भाषा की जननी ठहरती है। 


    जै प्राकृत कवि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।।
    भये जे अहहिं जे हो इहहिं आगे। पनवो सबनि कपट छल त्यागे।।


    गोस्वामी जी ने जब कहा, तो इसमें पिछले सभी कवियों की बात आई और आगे आने वालों की भी। यही हिन्दी की उदारवाणी है। भारतेन्दु के पिता गिरधर दास जी ने वाल्मीकि रामायण के सातों काण्ड का पद्यानुवाद किया था। छत्रधारी ने सन् 1914 में बाल्मीकि रामायण के तीन काण्डों का अनुवाद किया था। संतोष सिंह ने 1890 में इसका भाषानुवाद किया था। महाभारत और उनके कथानकों का उपयोग आज तक होता रहा है। दिग्गज कवि ने सन् 1766 में ‘भारत-विलास’ नाम से महाभारत की कथा का वर्णन किया था। मनसाराम पाण्डे ने सन् 1864 में महाभारत की संक्षिप्त कथा ‘भारत प्रबन्ध’ नाम से लिखी। इनका इतिहास पुराना है। न केवल हिन्दी बल्कि अनेक भाषाओं में संस्कृत की पद साहित्य की परम्परा बहुत फैली। 


    हिन्दी का नायिका भेद संबंधी साहित्य संस्कृत पर आश्रित है। इनमें भानुदत्त कृत ‘रस मंजरी’ अत्यन्त प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ है। रस मंजरी के आधार पर कृपाराम ने सन् 1598 में ‘हित तरंगिनी’ नामक नायिका भेद का सबसे प्राचीन गं्रन्थ हिन्दी में लिखा। भक्त कवि नन्ददास ने सन् 1624-30 के मध्य रस मंजरी के आधार पर ‘हिन्दी रस मंजरी’ की रचना की। शाहजहाँ के काल में सन् 1688 में सुन्दर दास ने ‘‘सुन्दर शृंगार’ नामक नायिका भेद पर ग्रन्थ लिखा।


    सन् 1648 में केशवदास ने विविध संस्कृत ग्रन्थों को आधार बनाकर ‘रसिक प्रिया’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जो काव्य की सरसता एवं भावों की प्रौढ़ता की दृष्टि से उत्तम सृजन माना जाता है। हिन्दी भाषा का शृंगार संबंधी राीतिकालीन साहित्य संस्कृत साहित्य की परम्परा से अनुप्राणित हुआ है। हिन्दी का विस्तृत काव्य लक्षण संबंधी साहित्य संस्कृत की देन है। मम्मट आदि आचार्यों ने जो लक्षण दिये हैं, उन्हीं को आधार बनाकर हिन्दी के आचार्यों ने काव्य-लक्षण बनाये हैं। हिन्दी काव्य संबंधी शब्दावाली एवं परिभाषायें वही हैं, जो संस्कृत में हैं।


    हिन्दी के पूर्व के साहित्यकार संस्कृत के नाटक एवं काव्य के सन्निकट थे। संस्कृत के सभी प्रसिद्ध ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया गया है। सन् 1680 में कवि हृदयराम ने ‘हनुमन्नाटक’ के आधार पर ‘भाषा हनुमन्नाटक’ लिखा। औरंगजेब के समकालीन मारवाड़ के महाराजा जसवन्त सिंह ने ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया। निवाज कवि ने सन् 1737 में ‘शकुन्तला’ का अनुवाद किया। कवि गणेश ‘‘प्रद्युम्न विजय’’ नामक नाटक लिखा, जिसका आधार भी संस्कृत ही था। यह परम्परा अधिक समय तक चली, किन्तु आज महसूस होता है कि और चलनी चाहिये थी। 


    हिन्दी का प्रचीन नीति साहित्य एवं दर्शन साहित्य संस्कृत की ही देन है। कृष्ण कवि ने सन् 1792 में ‘‘विदुर प्रजागर’’ की रचना की। पंचतंत्र एवं हितोपदेश का अनुवाद हिन्दी में हुआ। श्रीरामप्रसाद निरजनी ने सन् 1768 में ‘‘भाषा योगवसिष्ठ’’ नामक गद्य ग्रन्थ खड़ी बोली हिन्दी में लिखा, जो योगवसिष्ठ पर आधारित था। इन्हें प्रौढ़ गद्य का प्रणेता माना जाना चाहिये, जिसकी भाषा सुव्यवस्थित एवं सुन्दर है। भिखारीदास ने ‘‘विष्णु पुराण’’ का भाषा अनुवाद किया। इसके साथ-साथ अनेक वैज्ञानिक ग्रन्थों के अनुवाद आदि भी किये गये। हिन्दी साहित्य की आत्मा संस्कृत साहित्य में बसती है और संस्कृत साहित्य का अमृत निरन्तर इस बहता रहे, यही महात्मा गाँधी जी का भी कहना था। उन्होंने कहा था - ‘‘संस्कृत हमारी भाषा के लिये गंगा नदी है। मुझे लगता रहता है कि वह सूख जाये तो हमारी भाषायें निर्माल्य बन जायेंगी।’’ 


    हिन्दी की विशेषता रही है कि संस्कृत से सान्निध्य रखते हुए भी इसने अपनापन बनाये रखा और अपने रूप-विधान के लिये अनेक छन्द, साहित्यिक रूप और भाषा शैलियों का विकास किया है। हिन्दी की प्रगति कहीं भी संस्कृत के भार से कुण्ठित नहीं हुई है। जहाँ भी उसे संस्कृत की धारा मिली, इसे नवजीवन ही मिला। वस्तुतः अपभ्रंश के बाद संस्कृत से मिले शब्द रूपों का वरदान पाकर ही हिन्दी की नवीन शैली प्रवृत्त हुई है। यदि ‘‘रामचरित मानस’’ एवं ‘‘विनय पत्रिका’’ का परीक्षण करें, तो तुलसीदास जी ने जितने बहुसंख्यक संस्कृत शब्दों के प्रयोग किये हैं, उतने नये शब्द संस्कृत कवियों ने भी विरले ही किये हैं। 


    हिन्दी के प्रबंध काव्यों के भीतर की वर्णन शैली और वस्तु विधान पर भी संस्कृत साहित्य का गहरा प्रभाव देखा जाता है। दण्डी ने प्रबंध काव्य का लक्षण देते समय कहा कि प्रबंध काव्य में पुत्र जन्म, विवाह, उद्यान क्रीड़ा, सलिल क्रीड़ा, दिग्विजय, सूर्योदय, सूर्यास्त आदि के वर्णन होने चाहिये। हिन्दी के प्रबंध काव्यों में ये लक्षण स्पष्ट हैं। परम्परा के अनुसार काव्य के प्रारंभ में सज्जन प्रशंसा एवं दंर्जन निंदा का वर्णन रहना चाहिये, जिसका परिपालन हिन्दी प्रबंध काव्यों में मिलता है। तुलसी और जायसी ने इनका निर्वाह किया। 


    इस प्रकार देखा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने का महती कार्य किया है। आगे और कार्य करने की आवश्यकता है। संस्कृत में उपलब्ध सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान को हिन्दी में लाने की आवश्यकता है। एक समय संस्कृत न केवल भारत की भाषा थी, बल्कि मध्य एशिया के यवद्वीप तक इसका क्षेत्र विस्तृत था। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारी इतनी समृद्ध विरासत रही है। कल की अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत का कार्य अब हिन्दी को करना है। संस्कृत भाषा शब्द रचना तथा भावों की दृष्टि से कामधेनु है। यही हिन्दी के अभ्युदय में बड़ा कारक है। आज हिन्दी को संस्कृत के समान ही आगे बढ़कर विश्व-बंधुत्व को स्थापित करना है। 


विश्वजीत ‘सपन’