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Sunday 2 October 2022

‘‘संतोषं परमं सुखम्’’

 

संतोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्।

संतोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः।। ----- मनुस्मृति (चतुर्थ अध्याय, श्लोक 12)


अर्थात् सुख की इच्छा रखने वाले को चाहिये कि वे संतोषवृत्ति को रख कर जो मिले उसी में निर्वाह करें (अधिक माया में न फँसे) (क्योंकि) संतोष सुख का मूल और उसके विपरीत असंतोष दुःख का मूल है।


इसी को दूसरी तरह से भी कहा गया है - ‘‘संतोषं परमं सुखम्’’ अर्थात् संतोष ही परम सुख है। मनुष्य को चाहिये कि वह संतोष रखे और जो मिले उसमें ही ख़ुश रहने का प्रयास करे, ताकि जीवन भर सुख मिलता रहे, क्योंकि और अधिक की चाह का अंत कभी नहीं होता है। यह चाह बढ़ती ही जाती है, ठीक उसी प्रकार यदि पानी न मिले, तो प्यास बढ़ती जाती है। अधिक से अधिक की चाह में सबका मिलना दुर्लभ होता है, तो इसकी प्यास बढ़ती जाती है। एक तरह से यह एक मानसिक रोग भी कहा जा सकता है, जिसका उपचार कम ही मिल पाता है, अतः इससे दूरी ही उचित मानी गयी है।


बात मात्र इतनी नहीं कि यह उक्ति कितनी सटीक और सही है अथवा हम इसे जानते हैं या नहीं? बात यह है कि क्या हम इसका अपने जीवन में पालन करते हैं? क्या इस मूलमंत्र को अपना कर अपने जीवन को सुखी बनाने का प्रयास करते हैं? क्या हमें ऐसा नहीं करना चाहिये? ऐसे अनेक प्रश्नों को जब हम अपने जीवन में उठाते हैं, तो सच की ओर अग्रसर होते हैं। शास्त्र जो कहते हैं, वे अनुभवी वाक्य होते हैं और सदियों का अनुभव उनमें छुपा होता है। इसी कारण ऐसी उक्तियों को जीवन में उतारना अच्छा माना गया है।


आइये संतोष के इस मूलमंत्र को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करें, तब चाहे किसी भी प्रकार की इच्छा क्यों न हो, हम उसे सीमित रखने का प्रयास करें और देखें कि यह हमें किस प्रकार सुख की ओर लेकर चलती है।

Thursday 27 January 2022

प्रतीकवाद - इतिहास और विकास

 प्रतीक क्या है? एक प्रकार का बुद्धि-व्यापार। बुद्धि के विकास के साथ-साथ मानव ने प्रतीकों से काम लेना सीखा और धीरे-धीरे इन प्रतीकों से भाषा का विकास हुआ। प्रतीक या प्रतीकवाद अपने मूल रूप में उन वस्तुओं से सम्बद्ध था जसे जाति, गुण, क्रिया या अपने किसी सादृश्य के द्वारा अन्य वस्तुओं, व्यक्तियों या विचारों को जताती थी। व्याप्ति संबंध भी प्रतीक प्रतीक का एक रूप था तथा उपमान भी प्रतीक का स्थान लेता रहता था। धीरे-धीरे प्रतीक के अर्थ में विकास हुआ। उदाहरण के लिये राष्ट्रीय झण्डा एक प्रतीक है। इसमें निहित अपार जन-समूह के गौरव का इसके प्रकृतरूप - एक डेढ़ गज के टुकड़े - से कोई मिलान नहीं है। इसी कारण एक विशेष प्रकार की कविता जिसमें अभिधेय अर्थ के अतिरिक्त किसी व्यापक अर्थ की व्यंजना रहती है, प्रतीकवाद के भीतर आती है।

    मानव में सबसे अधिक मौलिक और तीव्र मनोवेग भूख एवं काम हैं। भाषा की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति इन मनोवेगों से ही सम्बद्ध रही होगी, ऐसा अनुमान किया जाता है। इस कारण भाषा में अनेक शब्द बने। प्रतीक के आधार से एक-एक शब्द के अनेक अर्थ विकसित हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि आदिकाल में भूख एवं काम की क्रिया एक-दूसरे पर आरोपित होती रहती थीं, इसी कारण दोनों के लिये प्रायः एक ही शब्द का व्यवहार होता था और दोनों ही शरीर के आहार थे। संस्कृत के ‘भुज्’ और ‘भज्’ धातु का प्रयोग दोनों पक्षों में एक सा सदा होता रहा है और इनसे बने शब्द ‘भोग्य’ और ‘भोग’ आदि शब्द तथा अन्य भाषाओं में इनके समानार्थक शब्द अनादि काल से दोनों ओर जुटे हुए हैं। भजन और भक्ति का भी मूल वही है। वस्तुतः देखा जाये, तो भूख ने कृषि को जन्म दिया और काम ने सृष्टि चलाई। यहाँ भी उनकी एकता बनी रही। सभी भाषाओं में क्षेत्र, बीज, कर्षण, उपजाऊ, ऊसर आदि शब्द कृषि और काम के लिये एक समान प्रयुक्त होते रहे हैं। कई जातियों में खेती संबंधी उत्सवों के साथ काम संबंधी उत्सव भी मनाने की प्रथा रही है। 

    वस्तुतः सृष्टि और सभ्यता का विकास उपर्युक्त मनोवेगों के सम्पर्क, संघर्ष एवं संतुलन के सहारे अग्रसर हुआ है। इनके क्रिया-कलाप भाष के माध्यम से ध्वनित होकर दिश-दिशा फेलते रहे हैं। वैदिक काल में ‘यश’ शब्द ‘अन्न’ का प्रतीक था। अन्न समृद्धि का प्रतीक हो गया और कालान्तर में यश कीर्तिवाचक बन गया। 

    सुमित्रानंदन पंत की एक कविता में ध्वनि प्रतीकवाद के रूप दर्शनीय हैं; 

    झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के।
    छम छम छम गिरती हैं बूँदें तरुओं से छनके।
    चम चम बिजली चमक रही उर में घन के।
    थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।

प्रतीकवाद अपने साहित्यिक रूप में भी भाषा के विकास में सहायक सिद्ध हुआ। वेदों में प्रतीकों के भरमार को देखते हुए यह कहना निराधार न होगा कि प्रतीकवाद उतना ही स्वाभाविक है, जितनी भाषा।

भाषा की अभिव्यंजना का विकास और प्रतीकों का समाजीकरण महादेवी वर्मा की इन पंक्तियों में सुन्दरता से झलकता है;

कलियों की घन जाली में छिपती देखूँ लतिकायें।
या दुर्दिन के हाथों में लज्जा की करुणा देखूँ।

इसमें लज्जा से नारी का, चिथड़े में लिपटी नारी का, फलतः दुःख-दैन्य से आर्त मानवता का संकेत है। शब्द-शक्ति का इतना विस्तार पहले कभी नहीं देखा गया था। लक्षणा और व्यंजना अपने शास्त्रीय अर्थ में प्रतीकवाद की छाया भी छूने में असमर्थ दिख रही है। प्रतीकवाद न केवल कला है, बल्कि अपने आप में एक दर्शन भी है। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भाषा के विकास में जहाँ अनेक कारण हैं, वहीं प्रतीकवाद भी सहायक रहा है। भाषा अपने मूल रूप में स्वयं प्रतीक है। प्रतीक से सँवारी गयी है। इनके अंग-प्रत्यंग में प्रतीकवाद की छाप है। इसका विकास प्रतीकवादी पद्धति पर होता रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। 

 विश्वजीत ‘सपन’