आप सबों को पता ही होगा कि किसी ज़माने में एक कहावत हुआ करती थी कि जूते से आदमी की पहचान होती है। आपने कैसे जूते पहन रखे हैं ? वे सलीके के हैं अथवा नहीं ? उनमें ठीक तरीके से पालिश की गई है अथवा नहीं ? वे पुराने और फटे हुए तो नहीं हैं ? आदि-इत्यादि से आदमी को सभ्य या असभ्य समझा जाता था।
लेकिन आज कल लोग जूते से महान बनते हैं। कुछ नहीं तो जूते फेंक कर जूते की महानता का प्रदर्शन करते हैं। इससे दोनों का लाभ होता है, एक जूते फेंकने वाले का और दूसरा जिस पर जूता फेंका गया हो, क्योंकि दोनों ही महानता की मंज़िल तक सीढ़ी चढ़ने में सफल हो जाते हैं। क्षण भर में ही अख़बारों एवं टीवी चैनलों पर महानायक बन कर उभर जाते हैं।
आपको संभवतः पता हो अथवा न हो, किन्तु यह सत्य है कि इसी सदी के महान् राष्ट्रनायक श्रीयुत् जार्ज बुश ने इस आदरणीय एवं सुशोभनीय परम्परा का शुभारम्भ किया था। (अब करवाया था या किया था, इस पर शोध किया जा सकता है) तब वे ईराक में आम जन का गुस्सा झेल रहे थे। वह जूता फेंकने वाला अत्यधिक महान हो चुका है और उसे कई सम्मानों से सम्मानित भी किया जा चुका है। अतः इस परम्परा में जुड़ने के लिए लोग निरन्तर परिश्रमरत हैं। अतः अब इस कड़ी में लगातार नाम जुड़ते चले जा रहे हैं। आप तो समझ ही गए होंगे कि मैं माननीय गृहमंत्री चिदंबरम् महोदय और नवीन जिंदल जी, उद्योगपति जी की बात कर रह हूँ। वैसे अभी तो यह फ़िल्म का ट्रेलर ही है, आगे-आगे देखते जाइए क्योंकि फ़िल्म अभी बाक़ी है। अब देखिए तो सही कि कुछ समय तक तो जूता फेंकने वाले सभी बाहर वाले थे, किन्तु चिरन्तन सत्य की भाँति सदैव भावी प्रधानमंत्री रहे श्री लालकृष्ण आडवाणी जी के लिए तो उनके घरवाले ने ही यह कारनामा कर दिखाया था। बात यहीं नहीं रुकी और कांग्रेस के एक बड़े नेता पर तो एक पत्रकार ने भी जूते दिखाने का घनघोर प्रदर्शन कर डाला। अब तो पत्रकार बंधु भी इस कला प्रदर्शन में रम गए से प्रतीत होते हैं। तो फिर हम तो बस इतना ही कह सकते हैं कि जैसी प्रभु की इच्छा। साथ ही हम यह भी कहना चाहते हैं कि यह सरल-सुलभ परम्परा सदैव इसी भाँति सुचारु रूप से चलती रहे, ऐसी हमारी भी आकांक्षा है क्योंकि आवश्यक रूप से यह परम्परा जगत का भला करने वाला प्रतीत होता है।
अब तो आपको हमारे वक्तव्य पर संदेह नहीं होना चाहिए कि हम श्रीमान जूते जी का भजन क्यों गा रहें हैं और हमें श्रीमान जूते जी से इतना गहरा लगाव क्यों हो गया है। यह वैसे भी बड़े काम की चीज़ होती है। संभवतः जूते खाना इसी कारण से एक मुहावरा भी है। कभी यह किसी की ऊँचाई बढ़ाने के काम आता है तो कभी किसी की पिटाई के। इसने समाजवाद को भी काफी बढ़ावा दिया है क्योंकि ऐन मौके पर बाज़ार में या फिर कहीं भी अचानक ही फट जाता है या टूट जाता है और जूते सिलने वालों अर्थात् चर्मकारों को काम देता है। बूट पालिश करने वालों के पेट भरता है। फ़िल्मों को प्लाट देता है। तब चाहे ‘बूट पालिस’ नामक फ़िल्म ही क्यों न हो अथवा जूते को पालिश करने वाला का सबसे बड़ा गैंगस्टर बन जाना ही क्यों न हो। सच में इसकी महिमाओं के गुण गाने में आदमी अपनी शान समझता है, और इसीलिए इसे पहनने वाला दूसरों को जूते की नोंक पर रखता है।
आज कल इसने राजनीति में अपनी कहर बरसाई हुई है। इसलिए लोग इसे फेंक कर अपने गुस्से का इज़हार कर रहे हैं। चूँकि यह आम आदमी को नसीब नहीं होता है, अतः इसके महत्त्व को आसानी से समझा जा सकता है। राजनीति में इसका महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि तब ही पता चल पाता है कि किसी सभा में कितने आम आदमी थे और कितने ख़ास। जो भी हो, इतना तो तय है कि आम आदमी इसे फेंक अवश्य सकता है, किन्तु इसकी मार से बच नहीं सकता है। वैसे ख़ुदा-न-ख़स्ता वह बच भी जाए तो भी कोई बड़ी बात नहीं होती है क्योंकि अख़बार वालों के लिए वह आम बात हो जाती है।
और आज कल बाज़ार में तरह-तरह के जूते बिक रहे हैं। सौ रुपये से लेकर बीस-तीस हज़ार तक के जूते उपलब्ध हैं। क्या आपको इसकी ‘सुपीरियटी काम्प्लैक्स’ का बोध नहीं हो रहा है। अगर नहीं हो रहा है तो शौक से बाज़ार का भ्रमण कीजिए और आजमा आइए। चारों खाने चित न हों तो जूता पहनना छोड़ दूँगा। भ्रम में मत रहिए, अब कुछ ऐसी ही भाषाओं एवं परिभाषाओं के दौर चलने वाले हैं, जहाँ हर समय जूतम-पैजार की ही महिमा गाई जाएगी। अब आपसे क्या छुपाना, हमारे लोकतंत्र की आन, बान और शान – संसद और विधानसभाओं में इसने पहले से ही अपनी अच्छी-खासी पैठ जमा रखी थी। यह तो बेचारे चैनल वालों और अख़बार वालों को समझ नहीं थी। अब समझ आई है तो ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत स्लो मोशन से लेकर अनेक प्रकार के ग्राफिक्स के साथ इन्हें बार-बार दिखाया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे कि यह भावी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल हो गया हो। वैसे वह दिन भी दूर नहीं है, यह हम कहे देते हैं, जब यह कोई न कोई मंत्री-शंत्री अवश्य बन जाएगा क्योंकि वैश्विक स्तर पर जूता फेंकने वालों को सम्मान दिया जा रहा है। फेंके गए जूतों को संग्रहालयों में स्थान दिया जा रहा है। यह सब कुछ आनन-फानन में नहीं हो रहा है। सब कुछ सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है। इसमें किसी न किसी विदेशी शक्ति का हाथ है, अब कोई संदेह नहीं रह गया है। यदि आपको है तो कृपया ऐसे ही किसी जूते का इन्टरोगेशन कर लें।
अब एक विशेष सूचना – जूतातंत्र, ज़िन्दाबाद !
विश्वजीत 'सपन'
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