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Sunday 17 November 2019

‘‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’’

‘‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’’ - अशान्त मन वाले को सुख कैसे मिल सकता है। गीता के एक श्लोक का यह अंश हम सभी के जीवन के लिये उपयोगी कथन है। प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है और सुखी जीवन जीने का ही प्रयास भी करता है। धन-दौलत से सुख की प्राप्ति की मंशा चाहे कितनी भी हो, किन्तु मन यदि अशान्त है, तो धन-सम्पदा भी सुख नहीं देती।

यदि इस उक्ति पर ध्यान केन्द्रित करें, तो यह कर्मयोग का विषय बन जाता है। कर्मयोग में मन एवं इन्द्रियों को वश में करना मुख्य हो जाता है। जब हम मन एवं इन्दियों को संयमित नहीं कर पाते हैं तो हमारा ध्यान सांसारिक भोगों तथा उनके संग्रह में ही लगा रहता है। ऐसा मनुष्य कभी मान चाहता है, कभी धन चाहता है, कभी आराम चाहता है तो कभी भोग चाहता है। तब उसके अन्दर अनेक प्रकार की कामनाओं की उत्पत्ति होती रहती है। तब उसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती अर्थात् ‘मुझे मात्र अपने कर्तव्य का पालन करना है तथा फल की इच्छा, कामना, आसक्ति आदि का त्याग करना है’ - ऐसी भावना नहीं होती। 


जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसे शान्ति नहीं मिल सकती। कारण यह कि अपने कर्तव्य के पालन में दृढ़ता न होने के कारण उसके मन में अशान्ति का वास होता है। तब जो अशान्त है, उसे सुख कैसे मिल सकता है? उसके हृदय में तो हमेशा हलचल होती रहती है। बाहर से उसे कितनी भी अनुकूल वस्तुयें प्राप्त हो जायें, भोग मिल जाये, सुख-सम्पदा मिल जाये, किन्तु उसके हृदय की हलचल कभी नहीं मिटती। तब वह कैसे सुखी रह सकता है?


बड़ी बात है कि अहंता (मैं - पन) का त्याग किये बिना इन्द्रियाँ वश में नहीं होतीं, बिना इन्द्रियों को वश में किये एक निश्चयात्मक बुद्धि भी नहीं होती। यदि अहंता का परिवर्तन हो जाये कि ‘‘मैं साधक हूँ और साधन करना ही मेरा काम है’’ तो मन एवं इन्द्रियाँ स्वयमेव वश में आ जाती हैं, तब उन्हें वश में करने का कोई उपक्रम नहीं करना पड़ता है।


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।


अर्थात् - जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं। ऐसे मनुष्य की बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती। उस अयुक्त मनुष्य में निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणता का भाव नहीं रहता। निष्कामभाव न होने से उसे शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्य को शान्ति कैसे मिल सकती है?


सुख-दुःख की अनुभूति मन में होती है। पाश्चात्य वैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है। संसार के विषयों की ओर उसका झुकाव स्वाभाविक है। संसार में जहाँ इच्छाओं की बहुलता है, वहीं शोक-संघर्षों की भी कमी नहीं है। संसार में रहने वाला मनुष्य इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कामनायें होंगी, तो अभाव खटकेगा और तब मन में अशान्ति होगी। ऐसे मन में अनेक व्यामोहों का जन्म होगा और चिन्ताओं की वृद्धि होगी। इसका परिणाम दुःख के सिवाय कुछ नहीं हो सकता। 


एक दृष्टि से यह उचित ही प्रतीत होता है, किन्तु भारतीय दार्शनिकों का विचार है कि जीव की स्थिति स्वाभाविक रूप से सुखमय है। उसका सत्यरूप आनन्दस्वरूप है। संसार की बाधायें माया-जन्य हैं, जो दुःख के रूप में मानव-मन पर आरोपित होती रहहती हैं। यदि जीव अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर ले, तो दुःख की समस्त अनुभूतियों का अभाव हो जाता है, फिर जीव न तो कभी दुःखी होता है और न ही पीड़ित। 


अब प्रश्न यह उठता है कि जब शोक-संघर्षों का अस्तित्व स्थायी है और मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है, तो उसे सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है? इस पर पाश्चात्य मत है कि मानव-मन में अभिलाषाओं, इच्छाओं और कामनाओं की बहुलता होती है। यदि इनकी पूर्ति होती रहे, तो उसका मन शान्त होगा। कहने का तात्पर्य यह कि यदि उसकी इच्छाओं की पूर्ति होती रहेगी, तो निश्चय ही वह सुखी और संतुष्ट रहेगा। किन्तु, भारतीय मत यह नहीं है। इनका कहना है कि मानव-मन हमेशा तरंगित होता रहता है। उसकी प्रत्येक तरंग की पूर्ति असंभव है। कामनाओं एवं इच्छाओं का पारावार नहीं है। सभी की पूर्ति कभी भी संभव नहीं है। और-और की उसकी बढ़ती भूख कभी शान्त नहीं हो सकती। एक की पूर्ति के बाद मानव-मन नवीन इच्छापूर्ति की ओर अग्रसर हो उठता है। अतः भारतीय मत है कि इन इच्छाओं को छोड़ देना ही उचित है। तब अभावों का असर भी मन पर नहीं होगा। 


संसार में विषयों की अधिकता है। उनसे हटाया हुआ मन संभव है कि चतुर्दिक् वातावरण से विपथी हो जाये। इस शंका से बचने के लिये विषयों से विरक्त मन को परोपकार एवं परमार्थ में नियुक्त करना चाहिये। इसका कारण है कि मन निराधार नहीं रह सकता है, उसे एक आधार की आवश्यकता होती है। वह आधार परम है। उसी से सब कुछ का उदय है और उसी में सब कुछ का समाधान है। इसके बाद परमात्म रूप में एकाग्र किये हुए मन में जिस सुख-शान्ति एवं संतुष्टि का प्रस्फुटन होगा, वह सुख होगा, जो शाश्वत, चिरस्थायी एवं अक्षय होगा। इस सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है। इसके लिये साधु बनना समाधान नहीं है। यह समस्त आश्रमों की व्यवस्था में रहकर किया जा सकता है। यही कर्तव्य-पालन का मूलाधार भी है। मन की यही दशा प्राप्त करने के लिये जन्म-जन्मान्तर से मनुष्य भटकता चला आ रहा है, किन्तु नासमझी में पा नहीं रहा है। 


ऐसे विषयों को समझने के लिये पात्रता की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इसे एक कथा से समझा जा सकता है।


पूर्वकाल की बात है। एक महात्मा के पास तीन मित्र ज्ञान प्राप्ति हेतु गये। प्रणाम कर उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। गुरु ने उनकी पात्रता की परीक्षा के लिये उनसे एक-एक कर प्रश्न किया - ‘‘आँख एवं कान में क्या अंतर है?’’


पहले व्यक्ति ने कहा - ‘‘इनमें पाँच अंगुल का अन्तर है।’’ महात्मा ने उसे परे किया और दूसरे से यही प्रश्न किया तो उसने कहा - ‘‘आँख देखती है और कान सुनते हैं, अतः किसी प्रामाणिकता के विषय में आँख की अधिक महत्ता है।’’ उसे भी महात्मा ने परे किया और तीसरे से पूछा तो उसने कहा - ‘‘महात्मन्, कान का महत्त्व आँख से अधिक है। आँख मात्र लौकिक एवं दृश्यमान जगत् को ही देख पाती है, जबकि कान को पारलौकिक एवं पारमार्थिक विषय के पान का सौभाग्य प्राप्त है।’’ महात्मा ने अन्य दो को कर्म एवं उपासना का उपदेश देकर अपनी विचारण शक्ति को बढ़ाने को कहा और वापस भेज दिया, क्योंकि उनके सोचने की सीमा ब्रह्म तत्त्व की परिधि में प्रवेश करने योग्य सूक्ष्म न बनी थी।  


विश्वजीत 'सपन'