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Sunday 3 February 2019

मन की शान्ति


मन की शान्ति सबसे बड़ा सुख है - यह कथन उतना ही सत्य है, जितना कि सूर्य पूर्व में उगता है। हमने अनेक बार सुना है - मन की शान्ति, किन्तु यह है क्या? क्या हमने कभी जानने का प्रयास किया कि मन की शान्ति क्या है? इसका क्या अर्थ है?


मन की शान्ति को जानने के लिये सर्वप्रथम हमें जानना होगा कि मन क्या है? यह सामान्य प्रश्न नहीं है, मनोविज्ञान भी नहीं है, बल्कि एक दार्शनिक प्रश्न है और इसका उत्तर विज्ञान नहीं जानता, मात्र दर्शन जानता है। एक मनुष्य या जीवात्मा, आत्मा तथा शरीर का बना होता है। हम जानते हैं कि शरीर पंचभूतों से बना होता है - ये पंचमहाभमूत हैं जल, वायु, अग्नि, आकाश एवं पृथ्वी। उसकी प्रकार आत्मा भी मन, बुद्धि, संस्कारमय होता है। चेतन आत्मा ही मनस्वरूप है। आत्मा मन के द्वारा विचार करता है तथा निर्णय लेता है। आत्मा की संकल्प शक्ति का नाम ही मन है। विषय विस्तृत एवं गम्भीर है, फिर कभी वार्ता की जा सकती है। अतः वर्तमान विषय पर आते हैं कि यदि मन आत्मा का ही अंग है, तो इसकी शान्ति क्या होगी। क्या हम कहीं आत्मा की शान्ति की बात तो नहीं कर रहे? आप सही सोच रहे हैं, मनयुक्त आत्मा मन की शान्ति के द्वारा आत्मा की शान्ति का प्रयास ही करता है।


मानव-जीवन संघर्षों की एक दास्तान भर है और इसके दौरान उसे सोचने का अवसर नहीं रहता, अतः वह कभी नहीं जान सकता कि मन की शान्ति किसे कहते हैं। जब मन सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण रहता है, तभी वह शान्त रहता है। मन को देखा नहीं जा सकता, किन्तु जब सकारात्मक बातों से मन हल्का अनुभव करता है, तो उसे मन की शान्ति कहते हैं। दर्शन के ज्ञान की बात करें, तो आत्मा का स्वधर्म ही शान्ति है। आत्मा स्वयं ही शान्त-स्वरूप है, अतः जब उसे शान्ति नहीं मिलती तो वह तत्काल उसे ढूँढने का प्रयास करने लगता है। यह स्वाभाविक है, जिसे हम मनुष्य को समझना चाहिये। आत्मा की संकल्प-शक्ति मन यही प्रयास करता रहता है, जीवन भर। 


जिसने इस मन की शान्ति को प्राप्त कर लिया, वह स्थिर हो जाता है। उसे सुख-दुःख का प्रभाव नहीं पड़ता। उसे गर्व, ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, लोभादि से मुक्ति मिल जाती है। वह स्थितप्रज्ञ होकर जीव एवं आत्मा के अंतर को समझ लेता है। तब उसका साक्षात्कार ब्रह्म से हो जाता है। यह साक्षात्कार ही उसकी मुक्ति का साधन बनता है। 


अब प्रश्न उठता है कि मन की शान्ति कैसे पायें? 


मन की शान्ति क्या है? मन की एक अवस्था है। चूँकि यह आत्मा की संकल्पशक्ति है, निर्णय शक्ति है, अतः यही मन सुख एवं दुःख का अनुभव करता है। यह अनुभव भी मात्र इसलिये कि वह सांसारिकता के बंधन में बँधा होता है। मनुष्य को यह पता नहीं कि यह अनुभव यथार्थ नहीं, अतः वह इससे छुटकारा नहीं पा सकता। इसके बाद भी शास्त्रों में अनेक उपाय बताये गये हैं कि किस प्रकार मन को शान्त किया जा सकता है तथा उसको उसके स्वधर्म की प्राप्ति हो सकती है।


मन की शान्ति का सबसे सुन्दर उपाय है योग का। योगः चित्तवृत्तिः निरोधः - चित्त की वृत्तियाँ ही मन के विकार होते हैं। यदि इन विकारों पर नियंत्रण पाना है, तो योग की ओर प्रवृत्त होना होगा। योग मात्र योगासन नहीं है। इसके दर्शन को समझना होगा। योग की मान्यता के अनुसार ‘प्रकृति’ तथा ‘पुरुष’ (चेतन आत्मा) दो भिन्न तत्त्व हैं। प्रकृति दृश्य है, तो पुरुष द्रष्टा। इनके संयोग से ही सृष्टि हुई है। योग का अर्थ होता है - जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना। जिस विधि से एक साधक अपने प्रकृति जनित विकारों को त्याग कर आत्मा के साथ संयोग करता है, उसे ही योग कहा जाता है। यह आत्मा ही पुरुष का निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है। 


योग की अनेक विधियाँ हैं, यथा राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, संन्यासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, लययोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि। इनमें से कोई किसी का अवलम्बन करे, अंतिम परिणाम एक ही होता है उस आत्मा के साथ अभेद संबध स्थापित करना। ‘‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’’ (गीता 15/6) अर्थात् जीव की उत्पत्ति उस चैतन्य आत्मा से है तथा पुनः उसी में उपलब्ध हो जाना उसकी अंतिम परिणति है, यही उसका गंतव्य स्थान है। इस आत्म-स्वरूप की उपलब्धि के लिये साधक शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि का पूर्ण परिशोधन कर उन्हें इस योग्य बना देता है कि वह उस आत्मा स्वरूप को पहचान सके तथा उसी में स्थित हो जाये। यही वास्तविक मन की शान्ति है, अन्य सभी क्षणिक शान्ति हैं, जो बाह्य उपायों से संभव है। 


विश्वजीत 'सपन'