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Sunday 8 September 2019

कर्म का मर्म



कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूः मातेसङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।गी. 2.47।।

 
इस उद्धृत श्लोक को गीता का प्राण कहा जाये, तो अत्युक्ति नहीं होगी। यह बड़ा ही अर्थवान् श्लोक है। कुल-मिलाकर तात्पर्य यही है कि यदि हम कर्मयोग को देखें, तो एक कर्म विभाग है और एक फल विभाग। एक मनुष्य का कर्म विभाग में तो अधिकार है, किन्तु फल विभाग में नहीं। कारण बड़ा सरल एवं स्पष्ट है कि नया पुरुषार्थ होने के कारण कर्म करना मनुष्य के अधीन है, किन्तु पर्वकृत कर्मों का भोग होने से फल विभाग उसके प्रारब्ध के अधीन है। उस पर उसका कोई वश नहीं है। एक मनुष्य को जो भी साधन-सामग्री मिली है, अर्थात् वस्तु, योग्यता अथवा सामर्थ्य मिले हैं, वे सब के सब प्रारब्ध के कारण हैं। चलिये इसकी व्याख्या कर इसे स्पष्टता से समझने का प्रयास करते हैं।

‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’’ कर्मणि एव ते अधिकारः - अर्थात् कर्म में ही तेरा अधिकार है। मनुष्य कर्मयोनि है। इसके अलावा किसी प्राणी का नये कर्म में अधिकार नहीं है। तब मनुष्य शरीर की दो बातों को देखना अवश्यक होगा - पुराने कर्मों का फलभोग एवं नये कर्म का पुरुषार्थ। कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता आदि की योनियाँ मात्र भोग योनियाँ हैं। अतः उनके लिये नये कर्म का पुरुषार्थ नहीं है। यह मात्र मनुष्य योनि हेतु है। इस प्रकार देखें तो मनुष्य के जीवन में एक तो उसके पुराने कर्मों के फलरूप अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं और दूसरा वह नया पुरुषार्थ करता है। इस नये कर्म के द्वारा ही उसके भविष्य का निर्माण होता है। इस प्रकार देखें तो मनुष्य के जीवन में नये कर्म की स्वतंत्रता है, जबकि फल प्राप्ति में वह परतंत्र है, क्योंकि पुराने कर्मों के फल को उसे भोगना ही पड़ता है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य को जो भी मिलता है, उससे सुख-दुःख बाह्य होता है, किन्तु वह स्वयं उसे महसूस करता है, क्योंकि वह उस परिस्थिति से तादात्म्य बनाकर उसका भोक्ता बन जाता है। यदि वह तादात्म्य न करे, तो वही उसके उद्धार का साधन बन जाता है। इसे समझने के लिये इस प्रकार कह सकते हैं कि कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि के लिये पुराने कर्म एवं नये कर्म भोगरूप में उपलब्ध हैं जबकि मनुष्य के लिये पुराने कर्मों के फल एवं नये पुरुषार्थ उनके लिये उद्धार के लिये हैं। 


‘‘मा फलेषु कदाचन’’ फलेषु (अधिकारः) कदाचन मा - अर्थात् फलों में अधिकार कदापि नहीं है। फल में मनुष्य का जब अधिकार ही नहीं, तो उसकी चिंता क्यों करनी? यदि कोई करता है, तो वह उसमें ही बँध जाता है - ‘‘फले सक्तो निबध्यते’’। फल की इच्छा भोक्ता पर निर्भर करता है, भोक्ता अपने कर्ता होने के अभिमान में फलेच्छा करता है। फलेच्छा का मिट जाना यानी कर्तृत्व का मिट जाना है। वैसे भी जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियों के संगठन से होते हैं। पदार्थों एवं व्यक्तियों के संगठन के बिना कर्म संभव नहीं। अतः यह मनुष्य द्वारा स्वयं का किया गया कर्म ही नहीं है। यह संगठन द्वारा है, अतः स्वयं के लिये इसे सोचना अनुचित है।
विचारणीय है कि कामना की पूर्ति से परतंत्रता एवं पूर्ति न होने से दुःख होता है, साथ ही कामना पूर्ति से नयी कामना का जन्म होता है। फिर कर्म नित्य नहीं है, उसी प्रकार उसका फल भी नित्य नहीं है। इस प्रकार अनित्य कर्म एवं कर्मफल से मनुष्य का लाभ संभव नहीं। 


‘‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’’ - कर्मफलहेतुः मा भूः - कर्मफल का हेतु (भी) मत बन - हेतु मनुष्य तभी बनता है, जब उसमें ममता होती है, क्योंकि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि में ममता होने से कर्मफल में आसक्त होना स्वाभाविक है। शुभ क्रियाओं में फल की इच्छा न होने पर भी ‘मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया, किसी का हित हो गया, किसी को सुख पहुँचा’ ऐसा भाव आना भी कर्मफल का हेतु बनना है। कारण यह कि ऐसा भाव मन, इन्द्रिय आदि से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। वास्तव में अन्तःकरण अथवा बहिःकरण तथा क्रियाओं के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि से है, संसार से है। 


‘‘मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’’ - ते अकर्मणि सङ्गः मा अस्तु - तेरी कर्म करने में (भी) आसक्ति न हो। कर्म न करने में आलस्यादि के प्रमाद होंगे। कर्मफल में आसक्ति रहने से जैसा बंधन होता है, ठीक वैसा ही बन्धन कर्म न करने से होता है। यह भी एक भोग ही है। इसका सुख तमोगुण है - ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्’ और इसका फल अधोगति है - ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’ तात्पर्य यह कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी, वह बन्धनकारी होगी। इस श्लोक के चार भाग में चार बाते हैं - 1) कर्म में ही तेरा अधिकार है, 2) फल में कभी तेरा अधिकार नहीं, 3) तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और 4) कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो। ध्यान से देखें, तो पहले और चौथे चरण में एक बात है, जबकि दूसरे और चौथे चरण में एक। पहले चरण में कर्म में अधिकार बताया गया है, जबकि चौथे में कर्म न करने में आसक्ति का निषेध किया गया है। दूसरे में फल की इच्छा निषेध किया गया है और तीसरे चरण में फल का हेतु बनने का निषेध किया गया है। 


कर्मयोग की एक और मुख्य बात है, जिसे समझना आवश्यक है। अपने कर्तव्य के द्वारा दूसरे के अधिकार की रक्षा करना तथा कर्मफल का अर्थात् अपने अधिकार का त्याग करना। दूसरे के अधिकार करने से पुराना राग मिट जाता है एवं अपने अधिकार का त्याग करने से नया राग पैदा नहीं होता। इस प्रकार देखें तो पुराना राग मिटने से एवं नया राग उत्पन्न न होने के कारण एक कर्मयोगी वीतराग हो जाता है। वीतराग हो जाने से उसको तत्त्वज्ञान हो जाता है। 


विश्वजीत 'सपन'