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Sunday 17 November 2019

‘‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’’

‘‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’’ - अशान्त मन वाले को सुख कैसे मिल सकता है। गीता के एक श्लोक का यह अंश हम सभी के जीवन के लिये उपयोगी कथन है। प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है और सुखी जीवन जीने का ही प्रयास भी करता है। धन-दौलत से सुख की प्राप्ति की मंशा चाहे कितनी भी हो, किन्तु मन यदि अशान्त है, तो धन-सम्पदा भी सुख नहीं देती।

यदि इस उक्ति पर ध्यान केन्द्रित करें, तो यह कर्मयोग का विषय बन जाता है। कर्मयोग में मन एवं इन्द्रियों को वश में करना मुख्य हो जाता है। जब हम मन एवं इन्दियों को संयमित नहीं कर पाते हैं तो हमारा ध्यान सांसारिक भोगों तथा उनके संग्रह में ही लगा रहता है। ऐसा मनुष्य कभी मान चाहता है, कभी धन चाहता है, कभी आराम चाहता है तो कभी भोग चाहता है। तब उसके अन्दर अनेक प्रकार की कामनाओं की उत्पत्ति होती रहती है। तब उसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती अर्थात् ‘मुझे मात्र अपने कर्तव्य का पालन करना है तथा फल की इच्छा, कामना, आसक्ति आदि का त्याग करना है’ - ऐसी भावना नहीं होती। 


जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसे शान्ति नहीं मिल सकती। कारण यह कि अपने कर्तव्य के पालन में दृढ़ता न होने के कारण उसके मन में अशान्ति का वास होता है। तब जो अशान्त है, उसे सुख कैसे मिल सकता है? उसके हृदय में तो हमेशा हलचल होती रहती है। बाहर से उसे कितनी भी अनुकूल वस्तुयें प्राप्त हो जायें, भोग मिल जाये, सुख-सम्पदा मिल जाये, किन्तु उसके हृदय की हलचल कभी नहीं मिटती। तब वह कैसे सुखी रह सकता है?


बड़ी बात है कि अहंता (मैं - पन) का त्याग किये बिना इन्द्रियाँ वश में नहीं होतीं, बिना इन्द्रियों को वश में किये एक निश्चयात्मक बुद्धि भी नहीं होती। यदि अहंता का परिवर्तन हो जाये कि ‘‘मैं साधक हूँ और साधन करना ही मेरा काम है’’ तो मन एवं इन्द्रियाँ स्वयमेव वश में आ जाती हैं, तब उन्हें वश में करने का कोई उपक्रम नहीं करना पड़ता है।


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।


अर्थात् - जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं। ऐसे मनुष्य की बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती। उस अयुक्त मनुष्य में निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणता का भाव नहीं रहता। निष्कामभाव न होने से उसे शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्य को शान्ति कैसे मिल सकती है?


सुख-दुःख की अनुभूति मन में होती है। पाश्चात्य वैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है। संसार के विषयों की ओर उसका झुकाव स्वाभाविक है। संसार में जहाँ इच्छाओं की बहुलता है, वहीं शोक-संघर्षों की भी कमी नहीं है। संसार में रहने वाला मनुष्य इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कामनायें होंगी, तो अभाव खटकेगा और तब मन में अशान्ति होगी। ऐसे मन में अनेक व्यामोहों का जन्म होगा और चिन्ताओं की वृद्धि होगी। इसका परिणाम दुःख के सिवाय कुछ नहीं हो सकता। 


एक दृष्टि से यह उचित ही प्रतीत होता है, किन्तु भारतीय दार्शनिकों का विचार है कि जीव की स्थिति स्वाभाविक रूप से सुखमय है। उसका सत्यरूप आनन्दस्वरूप है। संसार की बाधायें माया-जन्य हैं, जो दुःख के रूप में मानव-मन पर आरोपित होती रहहती हैं। यदि जीव अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर ले, तो दुःख की समस्त अनुभूतियों का अभाव हो जाता है, फिर जीव न तो कभी दुःखी होता है और न ही पीड़ित। 


अब प्रश्न यह उठता है कि जब शोक-संघर्षों का अस्तित्व स्थायी है और मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है, तो उसे सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है? इस पर पाश्चात्य मत है कि मानव-मन में अभिलाषाओं, इच्छाओं और कामनाओं की बहुलता होती है। यदि इनकी पूर्ति होती रहे, तो उसका मन शान्त होगा। कहने का तात्पर्य यह कि यदि उसकी इच्छाओं की पूर्ति होती रहेगी, तो निश्चय ही वह सुखी और संतुष्ट रहेगा। किन्तु, भारतीय मत यह नहीं है। इनका कहना है कि मानव-मन हमेशा तरंगित होता रहता है। उसकी प्रत्येक तरंग की पूर्ति असंभव है। कामनाओं एवं इच्छाओं का पारावार नहीं है। सभी की पूर्ति कभी भी संभव नहीं है। और-और की उसकी बढ़ती भूख कभी शान्त नहीं हो सकती। एक की पूर्ति के बाद मानव-मन नवीन इच्छापूर्ति की ओर अग्रसर हो उठता है। अतः भारतीय मत है कि इन इच्छाओं को छोड़ देना ही उचित है। तब अभावों का असर भी मन पर नहीं होगा। 


संसार में विषयों की अधिकता है। उनसे हटाया हुआ मन संभव है कि चतुर्दिक् वातावरण से विपथी हो जाये। इस शंका से बचने के लिये विषयों से विरक्त मन को परोपकार एवं परमार्थ में नियुक्त करना चाहिये। इसका कारण है कि मन निराधार नहीं रह सकता है, उसे एक आधार की आवश्यकता होती है। वह आधार परम है। उसी से सब कुछ का उदय है और उसी में सब कुछ का समाधान है। इसके बाद परमात्म रूप में एकाग्र किये हुए मन में जिस सुख-शान्ति एवं संतुष्टि का प्रस्फुटन होगा, वह सुख होगा, जो शाश्वत, चिरस्थायी एवं अक्षय होगा। इस सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है। इसके लिये साधु बनना समाधान नहीं है। यह समस्त आश्रमों की व्यवस्था में रहकर किया जा सकता है। यही कर्तव्य-पालन का मूलाधार भी है। मन की यही दशा प्राप्त करने के लिये जन्म-जन्मान्तर से मनुष्य भटकता चला आ रहा है, किन्तु नासमझी में पा नहीं रहा है। 


ऐसे विषयों को समझने के लिये पात्रता की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इसे एक कथा से समझा जा सकता है।


पूर्वकाल की बात है। एक महात्मा के पास तीन मित्र ज्ञान प्राप्ति हेतु गये। प्रणाम कर उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। गुरु ने उनकी पात्रता की परीक्षा के लिये उनसे एक-एक कर प्रश्न किया - ‘‘आँख एवं कान में क्या अंतर है?’’


पहले व्यक्ति ने कहा - ‘‘इनमें पाँच अंगुल का अन्तर है।’’ महात्मा ने उसे परे किया और दूसरे से यही प्रश्न किया तो उसने कहा - ‘‘आँख देखती है और कान सुनते हैं, अतः किसी प्रामाणिकता के विषय में आँख की अधिक महत्ता है।’’ उसे भी महात्मा ने परे किया और तीसरे से पूछा तो उसने कहा - ‘‘महात्मन्, कान का महत्त्व आँख से अधिक है। आँख मात्र लौकिक एवं दृश्यमान जगत् को ही देख पाती है, जबकि कान को पारलौकिक एवं पारमार्थिक विषय के पान का सौभाग्य प्राप्त है।’’ महात्मा ने अन्य दो को कर्म एवं उपासना का उपदेश देकर अपनी विचारण शक्ति को बढ़ाने को कहा और वापस भेज दिया, क्योंकि उनके सोचने की सीमा ब्रह्म तत्त्व की परिधि में प्रवेश करने योग्य सूक्ष्म न बनी थी।  


विश्वजीत 'सपन'

Sunday 8 September 2019

कर्म का मर्म



कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूः मातेसङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।गी. 2.47।।

 
इस उद्धृत श्लोक को गीता का प्राण कहा जाये, तो अत्युक्ति नहीं होगी। यह बड़ा ही अर्थवान् श्लोक है। कुल-मिलाकर तात्पर्य यही है कि यदि हम कर्मयोग को देखें, तो एक कर्म विभाग है और एक फल विभाग। एक मनुष्य का कर्म विभाग में तो अधिकार है, किन्तु फल विभाग में नहीं। कारण बड़ा सरल एवं स्पष्ट है कि नया पुरुषार्थ होने के कारण कर्म करना मनुष्य के अधीन है, किन्तु पर्वकृत कर्मों का भोग होने से फल विभाग उसके प्रारब्ध के अधीन है। उस पर उसका कोई वश नहीं है। एक मनुष्य को जो भी साधन-सामग्री मिली है, अर्थात् वस्तु, योग्यता अथवा सामर्थ्य मिले हैं, वे सब के सब प्रारब्ध के कारण हैं। चलिये इसकी व्याख्या कर इसे स्पष्टता से समझने का प्रयास करते हैं।

‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’’ कर्मणि एव ते अधिकारः - अर्थात् कर्म में ही तेरा अधिकार है। मनुष्य कर्मयोनि है। इसके अलावा किसी प्राणी का नये कर्म में अधिकार नहीं है। तब मनुष्य शरीर की दो बातों को देखना अवश्यक होगा - पुराने कर्मों का फलभोग एवं नये कर्म का पुरुषार्थ। कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता आदि की योनियाँ मात्र भोग योनियाँ हैं। अतः उनके लिये नये कर्म का पुरुषार्थ नहीं है। यह मात्र मनुष्य योनि हेतु है। इस प्रकार देखें तो मनुष्य के जीवन में एक तो उसके पुराने कर्मों के फलरूप अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं और दूसरा वह नया पुरुषार्थ करता है। इस नये कर्म के द्वारा ही उसके भविष्य का निर्माण होता है। इस प्रकार देखें तो मनुष्य के जीवन में नये कर्म की स्वतंत्रता है, जबकि फल प्राप्ति में वह परतंत्र है, क्योंकि पुराने कर्मों के फल को उसे भोगना ही पड़ता है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य को जो भी मिलता है, उससे सुख-दुःख बाह्य होता है, किन्तु वह स्वयं उसे महसूस करता है, क्योंकि वह उस परिस्थिति से तादात्म्य बनाकर उसका भोक्ता बन जाता है। यदि वह तादात्म्य न करे, तो वही उसके उद्धार का साधन बन जाता है। इसे समझने के लिये इस प्रकार कह सकते हैं कि कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि के लिये पुराने कर्म एवं नये कर्म भोगरूप में उपलब्ध हैं जबकि मनुष्य के लिये पुराने कर्मों के फल एवं नये पुरुषार्थ उनके लिये उद्धार के लिये हैं। 


‘‘मा फलेषु कदाचन’’ फलेषु (अधिकारः) कदाचन मा - अर्थात् फलों में अधिकार कदापि नहीं है। फल में मनुष्य का जब अधिकार ही नहीं, तो उसकी चिंता क्यों करनी? यदि कोई करता है, तो वह उसमें ही बँध जाता है - ‘‘फले सक्तो निबध्यते’’। फल की इच्छा भोक्ता पर निर्भर करता है, भोक्ता अपने कर्ता होने के अभिमान में फलेच्छा करता है। फलेच्छा का मिट जाना यानी कर्तृत्व का मिट जाना है। वैसे भी जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियों के संगठन से होते हैं। पदार्थों एवं व्यक्तियों के संगठन के बिना कर्म संभव नहीं। अतः यह मनुष्य द्वारा स्वयं का किया गया कर्म ही नहीं है। यह संगठन द्वारा है, अतः स्वयं के लिये इसे सोचना अनुचित है।
विचारणीय है कि कामना की पूर्ति से परतंत्रता एवं पूर्ति न होने से दुःख होता है, साथ ही कामना पूर्ति से नयी कामना का जन्म होता है। फिर कर्म नित्य नहीं है, उसी प्रकार उसका फल भी नित्य नहीं है। इस प्रकार अनित्य कर्म एवं कर्मफल से मनुष्य का लाभ संभव नहीं। 


‘‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’’ - कर्मफलहेतुः मा भूः - कर्मफल का हेतु (भी) मत बन - हेतु मनुष्य तभी बनता है, जब उसमें ममता होती है, क्योंकि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि में ममता होने से कर्मफल में आसक्त होना स्वाभाविक है। शुभ क्रियाओं में फल की इच्छा न होने पर भी ‘मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया, किसी का हित हो गया, किसी को सुख पहुँचा’ ऐसा भाव आना भी कर्मफल का हेतु बनना है। कारण यह कि ऐसा भाव मन, इन्द्रिय आदि से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। वास्तव में अन्तःकरण अथवा बहिःकरण तथा क्रियाओं के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि से है, संसार से है। 


‘‘मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’’ - ते अकर्मणि सङ्गः मा अस्तु - तेरी कर्म करने में (भी) आसक्ति न हो। कर्म न करने में आलस्यादि के प्रमाद होंगे। कर्मफल में आसक्ति रहने से जैसा बंधन होता है, ठीक वैसा ही बन्धन कर्म न करने से होता है। यह भी एक भोग ही है। इसका सुख तमोगुण है - ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्’ और इसका फल अधोगति है - ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’ तात्पर्य यह कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी, वह बन्धनकारी होगी। इस श्लोक के चार भाग में चार बाते हैं - 1) कर्म में ही तेरा अधिकार है, 2) फल में कभी तेरा अधिकार नहीं, 3) तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और 4) कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो। ध्यान से देखें, तो पहले और चौथे चरण में एक बात है, जबकि दूसरे और चौथे चरण में एक। पहले चरण में कर्म में अधिकार बताया गया है, जबकि चौथे में कर्म न करने में आसक्ति का निषेध किया गया है। दूसरे में फल की इच्छा निषेध किया गया है और तीसरे चरण में फल का हेतु बनने का निषेध किया गया है। 


कर्मयोग की एक और मुख्य बात है, जिसे समझना आवश्यक है। अपने कर्तव्य के द्वारा दूसरे के अधिकार की रक्षा करना तथा कर्मफल का अर्थात् अपने अधिकार का त्याग करना। दूसरे के अधिकार करने से पुराना राग मिट जाता है एवं अपने अधिकार का त्याग करने से नया राग पैदा नहीं होता। इस प्रकार देखें तो पुराना राग मिटने से एवं नया राग उत्पन्न न होने के कारण एक कर्मयोगी वीतराग हो जाता है। वीतराग हो जाने से उसको तत्त्वज्ञान हो जाता है। 


विश्वजीत 'सपन'

Sunday 28 April 2019

हिन्दी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव



    किसी भी साहित्य पर उसकी प्राचीन भाषा एवं संस्कृति तथा उत्पत्ति के समय वर्तमान साहित्य का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। चूँकि हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ही संस्कृत भाषा से हुई है और लगभग समस्त हिन्दी व्याकरण भी संस्कृत आधारित है, तो यह प्रभाव अत्यधिक रहा। समृद्ध संस्कृत साहित्य का प्रभाव हिन्दी ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय साहित्य पर अत्यधिक है। आज हिन्दी भाषा का एक पृथक अस्तित्व है। 


संस्कृत भाषा के साहित्य को प्रायः दो भागों में बाँटा जाता है - वैदिक एवं लौकिक। वैदिक साहित्य के चार चरण माने गये हैं - संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद/आरण्यक एवं सूत्र-ग्रन्थ। इसी समय पाणिनि का व्याकरण आया, जिसका प्रभाव वैदिक एवं लौकिक संस्कृत साहित्य पर समान रूप से पड़ा। जब हिन्दी साहित्य पर संस्कृत के प्रभाव की बात करते हैं, तो वैदिक से लेकर लौकिक साहित्य को देखना होगा। यह अलग विषय है कि कबीर या जायसी जैसे विद्वानों ने संभव है कि वेदों को न पढ़ा हो, किन्तु उनके साहित्य पर उपनिषदों की छाया अवश्य दिखाई पड़ती है। संभव है; उन कवियों ने उपनिषदों को भाषा में सुना हो अथवा उन्हें मौखिक परम्परा से इनकी जानकारियाँ मिली हों। 


    परीक्षण करने पर पता चलता है कि यह प्रभाव दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - मौलिक और परम्परागत। मौलिक प्रभाव की दो श्रेणियाँ हैं - शुद्ध एवं मिश्र। जो प्रभाव अध्ययन से आये उन्हें शुद्ध कहा गया और जो श्रवण से आये उन्हें मिश्र। जब हम वेद, उपनिषद, महाकाव्य आदि का अध्ययन करते हैं, तो उनके विचार आदि स्वयमेव हमारे लेखन आदि में समाविष्ट हो जाते हैं। उस प्रभाव को शुद्ध कहा गया है। कई बार उन विषयों को हम सुनते हैं। कभी किसी से बातचीत होती है और चर्चा में हम उन विषयों को जान लेते हैं, तब प्रभाव शुद्ध नहीं रहता क्योंकि पठन नहीं हुआ है। इसमें जो बात समझ आती है मात्र उनका ही प्रभाव होता है, अतः मिश्र की श्रेणी में गिना जाता है। परम्परागत प्रभाव में परिवर्तन की संभावना अधिक मिलती है, जो समय के साथ परिमार्जित होती रही है। परम्परागत प्रभाव हमें परम्परा से मिलता है। अनेक प्रकार की वैदिक एवं लौकिक परम्परायें हमारे जीवन में हैं और समय के साथ उनमें बदलाव भी होते रहते हैं, लेकिन उनका प्रभाव हमारे लेखन और साहित्य पर सहसा ही पड़ता रहता है। 


    साधारण भाषा में ईश्वर की सत्ता को मानने वाले को ‘आस्तिक’ एवं न मानने वाले को ‘नास्तिक’ कहते हैं। भारतीय दर्शनों में ‘आस्तिक’ का अर्थ वेद की प्रामाणिकता में विश्वास होना है, ‘नास्तिक’ का अर्थ है जो वेद की निंदा करता है अथवा उसका निषेध करता है। उपनिषद के बाद अनेक नास्तिक मत का जन्म हुआ, यथा अक्रियावाद, यदृच्छावाद, नियतिवाद आदि। अवैदिक दर्शनों में सर्वाधिक प्राचीन मत चार्वाक दर्शन का माना जाता है और उनके ही दर्शन को ‘लोकायत’ कहा जाता है। ये वेद और उनकी मान्यताओं का खण्डन करते हैं। ये जगत् को आश्रय-रहित एवं अनीश्वर मानते हैं। ये स्त्री-पुरुष को ही विकास मानते हैं और काम को प्रमुख मानते हैं। वेदान्त अथवा अद्वैतवाद का सिद्धान्त बहुत प्रचीन रहा है। अद्वैतवाद में ब्रह्म और आत्मा की अनन्यता और उनकी भिन्नता का व्यावहारिक एवं अनित्य रूप का प्रतिपादन किया है। इसमें जीव एवं ब्रह्म का संबंध, ब्रह्म का संबंध एवं मोक्ष विचार किया गया है। इनका सीधा प्रभाव हिन्दी साहित्य पर दिखता है। 


    स्मृति साहित्य का संबंध प्रथाओं से है, जिसका प्रभाव सीधा देखा जा सकता है। पुराण का अर्थ इतिहास होता है और पौराणिक साहित्य का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर बहुत पड़ा। प्राचीन ग्रन्थ महाभारत से भी अधिक भागवत का प्रभाव मध्यकालीन कवियों में अत्यधिक देखा जा सकता है, जिसमें भगवान् नारायण की लीला-कथायें संकलित हैं। साथ महाभारत के अंश ‘गीता’ का प्रभाव अधिक दिखता है। इसके साथ ही साथ तांत्रिक साहित्य (वैष्णवागम, शैवागम, शाक्तागम), महाकाव्य (रामायण, महाभारत, कुमार संभवम्), खण्डकाव्य (मेघदूत), स्फुट काव्य (नीतिशतक), कथा साहित्य (कथा सरित्सागर), नाट्य साहित्य (अभिज्ञान शाकुंतल) एवं अनेक काव्यशास्त्रों का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर अत्यधिक दिखाई देता है। 


    संस्कृत एक समृद्ध भाषा रही है और उसका साहित्य इतना विशाल है कि समस्त विश्व इसका ऋण मानता है। हिन्दी साहित्य में चाहे वेद का प्रत्यक्ष प्रभाव न दिखता हो, किन्तु उपनिषदों के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है। उसके बाद के लौकिक साहित्य का प्रभाव अत्यधिक दिखता है, जिस पर मंथन किया जा सकता है। 


    संस्कृत साहित्य ने हिन्दी साहित्य को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है। यह प्रभाव कहीं-कहीं पर आकृतिमूलक और कहीं पर सिद्धान्तमूलक दिखाई पड़ता है। हिन्दी साहित्य के रूप एवं उसकी शाखाओं पर आकृतिमूलक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। कथाओं एवं घटनाओं पर विस्तारमूलक प्रभाव दिखता है। धर्म, दर्शन एवं काव्य-पद्धति पर सिद्धान्तमूलक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस सिद्धान्तमूलक प्रभाव के अन्तर्गत ही सदाचार, वैराग्य, भक्ति, योग, मनोवृत्ति, दर्शन-विचार एवं काव्य-शास्त्र आदि का समावेश स्वयमेव हो जाता है। 


    जहाँ तक ऋग्वेद की बात है, तो अकेले कवर्ग के कितने ही शब्द तब से आज तक चले आये हैं और हिन्दी के रोम-रोम में बस गये हैं, यथा कवि, कर्म, कन्या, कपिल, कपि, कपोत, करण, कर्ण, कर्ता, कला, कल्प आदि। अनेक शब्द ज्यों के त्यों हैं और अनेक कुछ बदलाव के साथ मिलते हैं। इसकी सूची बड़ी लम्बी है। यदि उचित दृष्टि से परीक्षण किया जाता है, तो वैदिक संस्कृत ही हिन्दी भाषा की जननी ठहरती है। 


    जै प्राकृत कवि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।।
    भये जे अहहिं जे हो इहहिं आगे। पनवो सबनि कपट छल त्यागे।।


    गोस्वामी जी ने जब कहा, तो इसमें पिछले सभी कवियों की बात आई और आगे आने वालों की भी। यही हिन्दी की उदारवाणी है। भारतेन्दु के पिता गिरधर दास जी ने वाल्मीकि रामायण के सातों काण्ड का पद्यानुवाद किया था। छत्रधारी ने सन् 1914 में बाल्मीकि रामायण के तीन काण्डों का अनुवाद किया था। संतोष सिंह ने 1890 में इसका भाषानुवाद किया था। महाभारत और उनके कथानकों का उपयोग आज तक होता रहा है। दिग्गज कवि ने सन् 1766 में ‘भारत-विलास’ नाम से महाभारत की कथा का वर्णन किया था। मनसाराम पाण्डे ने सन् 1864 में महाभारत की संक्षिप्त कथा ‘भारत प्रबन्ध’ नाम से लिखी। इनका इतिहास पुराना है। न केवल हिन्दी बल्कि अनेक भाषाओं में संस्कृत की पद साहित्य की परम्परा बहुत फैली। 


    हिन्दी का नायिका भेद संबंधी साहित्य संस्कृत पर आश्रित है। इनमें भानुदत्त कृत ‘रस मंजरी’ अत्यन्त प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ है। रस मंजरी के आधार पर कृपाराम ने सन् 1598 में ‘हित तरंगिनी’ नामक नायिका भेद का सबसे प्राचीन गं्रन्थ हिन्दी में लिखा। भक्त कवि नन्ददास ने सन् 1624-30 के मध्य रस मंजरी के आधार पर ‘हिन्दी रस मंजरी’ की रचना की। शाहजहाँ के काल में सन् 1688 में सुन्दर दास ने ‘‘सुन्दर शृंगार’ नामक नायिका भेद पर ग्रन्थ लिखा।


    सन् 1648 में केशवदास ने विविध संस्कृत ग्रन्थों को आधार बनाकर ‘रसिक प्रिया’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जो काव्य की सरसता एवं भावों की प्रौढ़ता की दृष्टि से उत्तम सृजन माना जाता है। हिन्दी भाषा का शृंगार संबंधी राीतिकालीन साहित्य संस्कृत साहित्य की परम्परा से अनुप्राणित हुआ है। हिन्दी का विस्तृत काव्य लक्षण संबंधी साहित्य संस्कृत की देन है। मम्मट आदि आचार्यों ने जो लक्षण दिये हैं, उन्हीं को आधार बनाकर हिन्दी के आचार्यों ने काव्य-लक्षण बनाये हैं। हिन्दी काव्य संबंधी शब्दावाली एवं परिभाषायें वही हैं, जो संस्कृत में हैं।


    हिन्दी के पूर्व के साहित्यकार संस्कृत के नाटक एवं काव्य के सन्निकट थे। संस्कृत के सभी प्रसिद्ध ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया गया है। सन् 1680 में कवि हृदयराम ने ‘हनुमन्नाटक’ के आधार पर ‘भाषा हनुमन्नाटक’ लिखा। औरंगजेब के समकालीन मारवाड़ के महाराजा जसवन्त सिंह ने ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया। निवाज कवि ने सन् 1737 में ‘शकुन्तला’ का अनुवाद किया। कवि गणेश ‘‘प्रद्युम्न विजय’’ नामक नाटक लिखा, जिसका आधार भी संस्कृत ही था। यह परम्परा अधिक समय तक चली, किन्तु आज महसूस होता है कि और चलनी चाहिये थी। 


    हिन्दी का प्रचीन नीति साहित्य एवं दर्शन साहित्य संस्कृत की ही देन है। कृष्ण कवि ने सन् 1792 में ‘‘विदुर प्रजागर’’ की रचना की। पंचतंत्र एवं हितोपदेश का अनुवाद हिन्दी में हुआ। श्रीरामप्रसाद निरजनी ने सन् 1768 में ‘‘भाषा योगवसिष्ठ’’ नामक गद्य ग्रन्थ खड़ी बोली हिन्दी में लिखा, जो योगवसिष्ठ पर आधारित था। इन्हें प्रौढ़ गद्य का प्रणेता माना जाना चाहिये, जिसकी भाषा सुव्यवस्थित एवं सुन्दर है। भिखारीदास ने ‘‘विष्णु पुराण’’ का भाषा अनुवाद किया। इसके साथ-साथ अनेक वैज्ञानिक ग्रन्थों के अनुवाद आदि भी किये गये। हिन्दी साहित्य की आत्मा संस्कृत साहित्य में बसती है और संस्कृत साहित्य का अमृत निरन्तर इस बहता रहे, यही महात्मा गाँधी जी का भी कहना था। उन्होंने कहा था - ‘‘संस्कृत हमारी भाषा के लिये गंगा नदी है। मुझे लगता रहता है कि वह सूख जाये तो हमारी भाषायें निर्माल्य बन जायेंगी।’’ 


    हिन्दी की विशेषता रही है कि संस्कृत से सान्निध्य रखते हुए भी इसने अपनापन बनाये रखा और अपने रूप-विधान के लिये अनेक छन्द, साहित्यिक रूप और भाषा शैलियों का विकास किया है। हिन्दी की प्रगति कहीं भी संस्कृत के भार से कुण्ठित नहीं हुई है। जहाँ भी उसे संस्कृत की धारा मिली, इसे नवजीवन ही मिला। वस्तुतः अपभ्रंश के बाद संस्कृत से मिले शब्द रूपों का वरदान पाकर ही हिन्दी की नवीन शैली प्रवृत्त हुई है। यदि ‘‘रामचरित मानस’’ एवं ‘‘विनय पत्रिका’’ का परीक्षण करें, तो तुलसीदास जी ने जितने बहुसंख्यक संस्कृत शब्दों के प्रयोग किये हैं, उतने नये शब्द संस्कृत कवियों ने भी विरले ही किये हैं। 


    हिन्दी के प्रबंध काव्यों के भीतर की वर्णन शैली और वस्तु विधान पर भी संस्कृत साहित्य का गहरा प्रभाव देखा जाता है। दण्डी ने प्रबंध काव्य का लक्षण देते समय कहा कि प्रबंध काव्य में पुत्र जन्म, विवाह, उद्यान क्रीड़ा, सलिल क्रीड़ा, दिग्विजय, सूर्योदय, सूर्यास्त आदि के वर्णन होने चाहिये। हिन्दी के प्रबंध काव्यों में ये लक्षण स्पष्ट हैं। परम्परा के अनुसार काव्य के प्रारंभ में सज्जन प्रशंसा एवं दंर्जन निंदा का वर्णन रहना चाहिये, जिसका परिपालन हिन्दी प्रबंध काव्यों में मिलता है। तुलसी और जायसी ने इनका निर्वाह किया। 


    इस प्रकार देखा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने का महती कार्य किया है। आगे और कार्य करने की आवश्यकता है। संस्कृत में उपलब्ध सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान को हिन्दी में लाने की आवश्यकता है। एक समय संस्कृत न केवल भारत की भाषा थी, बल्कि मध्य एशिया के यवद्वीप तक इसका क्षेत्र विस्तृत था। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारी इतनी समृद्ध विरासत रही है। कल की अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत का कार्य अब हिन्दी को करना है। संस्कृत भाषा शब्द रचना तथा भावों की दृष्टि से कामधेनु है। यही हिन्दी के अभ्युदय में बड़ा कारक है। आज हिन्दी को संस्कृत के समान ही आगे बढ़कर विश्व-बंधुत्व को स्थापित करना है। 


विश्वजीत ‘सपन’

Sunday 3 February 2019

मन की शान्ति


मन की शान्ति सबसे बड़ा सुख है - यह कथन उतना ही सत्य है, जितना कि सूर्य पूर्व में उगता है। हमने अनेक बार सुना है - मन की शान्ति, किन्तु यह है क्या? क्या हमने कभी जानने का प्रयास किया कि मन की शान्ति क्या है? इसका क्या अर्थ है?


मन की शान्ति को जानने के लिये सर्वप्रथम हमें जानना होगा कि मन क्या है? यह सामान्य प्रश्न नहीं है, मनोविज्ञान भी नहीं है, बल्कि एक दार्शनिक प्रश्न है और इसका उत्तर विज्ञान नहीं जानता, मात्र दर्शन जानता है। एक मनुष्य या जीवात्मा, आत्मा तथा शरीर का बना होता है। हम जानते हैं कि शरीर पंचभूतों से बना होता है - ये पंचमहाभमूत हैं जल, वायु, अग्नि, आकाश एवं पृथ्वी। उसकी प्रकार आत्मा भी मन, बुद्धि, संस्कारमय होता है। चेतन आत्मा ही मनस्वरूप है। आत्मा मन के द्वारा विचार करता है तथा निर्णय लेता है। आत्मा की संकल्प शक्ति का नाम ही मन है। विषय विस्तृत एवं गम्भीर है, फिर कभी वार्ता की जा सकती है। अतः वर्तमान विषय पर आते हैं कि यदि मन आत्मा का ही अंग है, तो इसकी शान्ति क्या होगी। क्या हम कहीं आत्मा की शान्ति की बात तो नहीं कर रहे? आप सही सोच रहे हैं, मनयुक्त आत्मा मन की शान्ति के द्वारा आत्मा की शान्ति का प्रयास ही करता है।


मानव-जीवन संघर्षों की एक दास्तान भर है और इसके दौरान उसे सोचने का अवसर नहीं रहता, अतः वह कभी नहीं जान सकता कि मन की शान्ति किसे कहते हैं। जब मन सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण रहता है, तभी वह शान्त रहता है। मन को देखा नहीं जा सकता, किन्तु जब सकारात्मक बातों से मन हल्का अनुभव करता है, तो उसे मन की शान्ति कहते हैं। दर्शन के ज्ञान की बात करें, तो आत्मा का स्वधर्म ही शान्ति है। आत्मा स्वयं ही शान्त-स्वरूप है, अतः जब उसे शान्ति नहीं मिलती तो वह तत्काल उसे ढूँढने का प्रयास करने लगता है। यह स्वाभाविक है, जिसे हम मनुष्य को समझना चाहिये। आत्मा की संकल्प-शक्ति मन यही प्रयास करता रहता है, जीवन भर। 


जिसने इस मन की शान्ति को प्राप्त कर लिया, वह स्थिर हो जाता है। उसे सुख-दुःख का प्रभाव नहीं पड़ता। उसे गर्व, ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, लोभादि से मुक्ति मिल जाती है। वह स्थितप्रज्ञ होकर जीव एवं आत्मा के अंतर को समझ लेता है। तब उसका साक्षात्कार ब्रह्म से हो जाता है। यह साक्षात्कार ही उसकी मुक्ति का साधन बनता है। 


अब प्रश्न उठता है कि मन की शान्ति कैसे पायें? 


मन की शान्ति क्या है? मन की एक अवस्था है। चूँकि यह आत्मा की संकल्पशक्ति है, निर्णय शक्ति है, अतः यही मन सुख एवं दुःख का अनुभव करता है। यह अनुभव भी मात्र इसलिये कि वह सांसारिकता के बंधन में बँधा होता है। मनुष्य को यह पता नहीं कि यह अनुभव यथार्थ नहीं, अतः वह इससे छुटकारा नहीं पा सकता। इसके बाद भी शास्त्रों में अनेक उपाय बताये गये हैं कि किस प्रकार मन को शान्त किया जा सकता है तथा उसको उसके स्वधर्म की प्राप्ति हो सकती है।


मन की शान्ति का सबसे सुन्दर उपाय है योग का। योगः चित्तवृत्तिः निरोधः - चित्त की वृत्तियाँ ही मन के विकार होते हैं। यदि इन विकारों पर नियंत्रण पाना है, तो योग की ओर प्रवृत्त होना होगा। योग मात्र योगासन नहीं है। इसके दर्शन को समझना होगा। योग की मान्यता के अनुसार ‘प्रकृति’ तथा ‘पुरुष’ (चेतन आत्मा) दो भिन्न तत्त्व हैं। प्रकृति दृश्य है, तो पुरुष द्रष्टा। इनके संयोग से ही सृष्टि हुई है। योग का अर्थ होता है - जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना। जिस विधि से एक साधक अपने प्रकृति जनित विकारों को त्याग कर आत्मा के साथ संयोग करता है, उसे ही योग कहा जाता है। यह आत्मा ही पुरुष का निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है। 


योग की अनेक विधियाँ हैं, यथा राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, संन्यासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, लययोग, ध्यानयोग, क्रियायोग आदि। इनमें से कोई किसी का अवलम्बन करे, अंतिम परिणाम एक ही होता है उस आत्मा के साथ अभेद संबध स्थापित करना। ‘‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’’ (गीता 15/6) अर्थात् जीव की उत्पत्ति उस चैतन्य आत्मा से है तथा पुनः उसी में उपलब्ध हो जाना उसकी अंतिम परिणति है, यही उसका गंतव्य स्थान है। इस आत्म-स्वरूप की उपलब्धि के लिये साधक शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि का पूर्ण परिशोधन कर उन्हें इस योग्य बना देता है कि वह उस आत्मा स्वरूप को पहचान सके तथा उसी में स्थित हो जाये। यही वास्तविक मन की शान्ति है, अन्य सभी क्षणिक शान्ति हैं, जो बाह्य उपायों से संभव है। 


विश्वजीत 'सपन'