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Sunday 15 April 2018

नैतिकता का महत्त्व - एक चर्चा

नैतिकता साहित्य में अत्यधिक प्रयुक्त शब्द है। यह ‘नीति’ शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। प्रापणार्थक ‘णीञ्’ धातु से भावार्थक ‘क्तिन’ प्रत्यय के मिलने से ‘नीति’ शब्द बना है। ‘णीञ्’ धातु का अर्थ है, ले जाना। इसे ही हिन्दी में ‘नी’ धातु कहा गया है। तो मानव को सही दिशा में लेकर जाना ही नीति है। इसी से ‘नैतिक’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है, नीति सम्मत। शब्दकोष में इसके अनेक अर्थ दिये गये हैं, किन्तु सामान्य रूप से इसका अर्थ हुआ - मानव व्यवहार का उचित अथवा न्यायसंगत होना।

भारतीय शास्त्रों में नीति शब्द पर अत्यधिक चर्चा हुई है। हिन्दी में श्री भोलानाथ तिवारी ने इसकी परिभाषा दी है - ‘‘समाज को स्वस्थ एवं संतुलित पथ पर अग्रसर करने एवं व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की उचित रीति से प्राप्ति कराने के लिये जिन विधि या निषेधमूलक वैयक्तिक एवं सामाजिक नियमों का विधान देश, काल और पात्र के संदर्भ में किया जाता है, उन्हें नीति शब्द से अभिहित करते हैं।’’


तो कहा जा सकता है कि नीति शब्द कर्म एवं शील का विवेचन ही है। दार्शनिक दृष्टि से देखें, तो सत् और असत् का विवेचन ही नैतिकता का मूल प्रश्न है। यह प्रश्न सदैव हम सभी के समक्ष उपस्थित रहा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि नीति नियमों एवं अनुशासनों की विवेचना ही है, जो व्यक्ति एवं समाज की स्थिति के कारण भी हैं और लक्ष्य भी। असल में नीति का केन्द्रीय तत्त्व न्याय है, क्योंकि हम जानते हैं कि जहाँ अन्याय होता है, वहाँ अनीति हैं और जहाँ न्याय होता है, वहाँ नीति है, तो नीति वस्तुतः दण्डनीति ही हुई क्योंकि न्याय से चलने वाले को पुरस्कार और अन्याय से चलने वाले को दण्ड यही नीति कहती है। इस प्रकार नीति या नैतिकता समाज में शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने में सहायक होती है।


किसी भी समाज में मानव व्यवहार के लिये अनेक नियमादि बनाये जाते हैं और उनका पालन करने वाला ही नैतिक कहा जाता है। तो किसी भी सुसंस्कृत समाज में नैतिकता का महत्त्व अत्यधिक कहा जायेगा। इसी कारण समाज में आचार-व्यवहार बना रहता है, लोग अनुचित करने से परहेज करते हैं। 


यह नीति कोई स्थायी वस्तु नहीं है। इसमें देश, काल आदि का प्रभाव पड़ता रहता है और इसी कारण हर काल में इस पर चर्चा होती रही है। आज हमारे देश में जहाँ नैतिकता का मूल स्वरूप ही बदल गया है, तो बहुत ही आवश्यक है कि हम इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार करें और देखें कि आज नैतिकता के क्या मायने हैं? क्या वे नीति सम्मत हैं? क्या उनमें भटकाव हैं? आइये इस पर एक चर्चा करते हैं।


नीतिशास्त्र बहुत ही वृहद् विषय है और इस अत्यधिक चर्चा की जा सकती है, किन्तु इसकी महत्ता को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र का अर्थ मानवीय आचरण के उन वास्तविक आदर्शों को ढूँढना है, जिससे यह निर्णय लिया जा सके कि उन कर्मों का औचित्य है अथवा नहीं। पर क्या हर प्रकार की क्रिया का नैतिक निर्णय संभव है? कदापि नहीं। एक सर्प के काटने से उसके विष के कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गयी, तो क्या इसे उस सर्प का अनैतिक कर्म कहेंगे? तो सभी क्रियायें नैतिकता से बँधी नहीं हो सकतीं। यह सुन्दर एवं दार्शनिक प्रश्न है। 


लोग कहते पाये जाते हैं कि आज नैतिकता का पाठ पढ़ाया ही नहीं जाता, तो इस बात से सहमत होते हुए भी असहमति है कि आज नैतिकता का पाठ पढ़ाया ही नहीं जाता। यदि ऐसा होता तो हम सभी नैतिकता की बातें ही नहीं करते। सच्चाई यही है कि समाज में आज भी नैतिकता जीवित है और आज भी हम सत्य के पक्षधर हैं; विशेषकर भारतीय समाज एवं परिवार में। यदि अधिकतर अनैतिक हो जायेंगे, तो समाज का स्वरूप ऐसा न होगा। तब वह स्वरूप होगा, जो सीरिया में है, आईएसआईएस के समाज में है।


ऐसी चिंतायें हो रही हैं कि सारा जगत अनैतिकता के दलदल में फँस चुका है और अब दुनिया में नैतिक कहने के लिये कुछ भी न बचा, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि तब कोई भी व्यक्ति अपना जीवन नहीं जी पाता। सब जगह केवल और केवल अनाचार एवं दुराचार ही होते और कुछ भी न होता। क्या ऐसा समाज है? सबसे बड़ी यही समस्या है कि आज हम यही मानते हैं कि हम तो नैतिक हैं, किन्तु अन्य सभी अनैतिक। समाज में अनैतिकता हमेशा रही है और रहेगी, परन्तु इससे निराश नहीं होना चाहिए। हमें समाज की भलाई की ओर ध्यान देना चाहिए। जीवन सकारात्मक सोच से चलता है। हम क्या करें कि नैतिकता का पाठ सभी को मिले, इस पर विचार करना होगा। जीवन को सुन्दर बनाना होगा। 


अंतरात्मा का स्वर यदि हमने सुन लिया तो हम कभी कोई अनैतिक कार्य नहीं करेंगे।


परिवार एवं समाज अपनी जिम्मेदारियों से विलग नहीं हुआ है, अन्यथा कुछ भी अच्छा न होता। नैतिकता के मूल्य बदले अवश्य हैं, हम वेदों की नैतिकता से दूर अवश्य हुए हैं, किन्तु सब-कुछ समाप्त नहीं हुआ है। आज भी परिवार अपने बच्चों को उचित मार्गदर्शन देता है। समाज भी उन्हें उचित मार्गदर्शन देता है। कुछ भटके हुओं के कारण समस्त परिवार एवं समस्त समाज का निरादर नहीं किया जा सकता। 


हमारा अनुभव व्यक्तिगत होता है। यह हमारी सोच को परिवर्तित करता है, किन्तु हमारा अनुभव ही सभी का अनुभव हो, ऐसा नहीं होता। देश एवं समाज को एक निष्पक्ष दृष्टि से देखने की आवश्यकता होती है। नैतिकता किसी भी समाज की आवश्यकता होती है और समाज का आधार इसी पर टिका होता है। प्रत्येक समाज में नैतिकता का मानदण्ड अपना होता है। और वह उन्हीं मानदण्डों पर चलता है। समय के साथ उन मानदण्डों में परिवर्तन भी होते हैं और वे आवश्यक भी होते हैं। समस्त मानवीय समाज एक समाज हो, आवश्यक नहीं, किन्तु आदर्श में उन्हें एक होना चाहिए। पाश्चात्य सभ्यता के अपने मानदण्ड हैं, उन्हें पूरी तरह से अनैतिक मान लेना हमारी भूल होगी। 


जीवन में मात्र नैतिकता एवं अनैतिकता ही नहीं है। इसे केवल इस तुला पर तौलना उचित नहीं है। जीवन के अनेक आयाम होते हैं और नैतिकता या अनैतिकता उन्हीं आयामों में से एक है। अतः जब तक हम जीवन को सम्पूर्णता में नहीं देखेंगे, तब तक एक भटके राही की भाँति राह ढूँढते रहेंगे। अतः सागर से जीवन को समझने का प्रयास होना चाहिए। यही जीवन की एक बड़ी सच्चाई है, जिससे हम अक्सर दूर रहते हैं अथवा भागते हैं।


परिवर्तन तो नियम है ही, किन्तु जितनी शीघ्रता से हमने दुनिया के समाप्त होने का अनुमान लगा लेते हैं, उसमें अत्यधिक शीघ्रता दिखती है। हमारे पूर्वज भी कुछ ऐसा ही कह कर गये थे, लेकिन समाज अभी भी है और जीवन अभी भी है। हाँ रहने के तरीके में परिवर्तन अवश्य हुआ है और यह आगे भी होता रहेगा। जीवन के मूल्य समय के साथ बदलते ही हैं, क्योंकि परिवर्तन ही नियम है। यह कभी संभव नहीं कि सभी बदलाव हमारे मनोनुकूल हों।
 

विश्वजीत ‘सपन’

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