श्रीमद्भगवद् गीता में धीर, धैर्य और धृति शब्द अनेक बार आये हैं। इससे ही इसकी महत्ता स्वतः प्रमाणित हो जाती है। सोलहवें अध्याय में धृति को दैवीय सम्पदा कहा गया है -
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। गी.16.3।।
जिस प्रकार आकाश में उठने वाले आड़े-तेढ़े धूम्र-वलयों को वायु का एक झोंका निगल जाता है, उसी प्रकार आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक इन तीनों प्रकार के तापों की पीड़ा को पचाकर, साथ ही चित्तक्षोभ होने पर भी जिस गुण के कारण एक मनुष्य तटस्थ बना रहता है, उसे धृति कहते हैं। ब्राह्मणत्व की प्राप्ति और एक सात्त्विक कर्त्ता बनने में इस गुण के विशेष महत्त्व को गीता में प्रतिपादित किया गया है।
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों में धृति को अग्रस्थान दिया गया है।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।मनु.6.92।।
आधुनिक एवं प्राचीन कवियों ने धैर्य गुण को अत्यधिक महत्ता प्रदान की है। यहाँ तक कहा गया है कि मनुष्य एवं इतर प्रणियों की सीमारेखा धैर्य के सद्गुण से खिंची है। जिस प्रकार बुद्धि के बिना मानव को मानव नहीं, बल्कि पशु कहा गया है, ठीक उसी प्रकार धीर को मनुष्य और अधीर को पशु समान माना गया है।
नीचे की ओर बहना जल का सहज धर्म है। ठीक उसी प्रकार अवगुणों की ओर फिसलना मानव का एक स्वाभाविक गुण है। यदि जल को ऊपर की ओर चढ़ाना हो, तो कोई न कोई युक्ति से उसको विपरीत गमन करवाना होता है, ठीक उसी प्रकार शरीर, मन, बुद्धि और चित्त की शक्ति का उपयोग कर मानव जीवन को उन्नत बनाना होता है, और इस कार्य में निरन्तर प्रयासरत रहना ही सात्त्विक धैर्य कहा गया है। अतः धैर्य मानव एवं उसकी मानवीयता का मूलाधार स्थापित होता है। राजसी और तामसी धैर्य भी जीवन को किसी न किसी प्रकार में प्रभावित करते रहते हैं। उससे बचकर रहना ही मानव का कर्तव्य होता है।
प्रभु श्रीराम का वन-गमन। सीता माता का अपहरण। एक अपरिचित प्रदेश में सैनिक जुटाकर प्रबल रावण का नाश करना और सीता माता को सुरक्षित लाना, उनके धैर्य का ही प्रतीक है। समस्त परिवार का बलिदान हो जाने पर भी गुरु गोविन्द सिंह जी शान्तिपूर्वक कार्य करते रहे, यही धैर्य है। धैर्य के कारण ही शिवाजी महाराज मृत्यु के मुख से भी बाहर निकल आये।
आज हम मानव-जीवन में दुःख और असफलता अधिक देखतें हैं, क्योंकि आज सभी यश और कीर्ति आदि पाना चाहते हैं, किन्तु अति शीघ्रता में बिना किसी परिश्रम के। यही धैर्य की कमी कही गयी है। जितने भी आविष्कार हुए, वे मात्र इसी कारण हुए कि आविष्कारक ने अपना धैर्य नहीं खोया और वह निरन्तर प्रयास करता रहा। यातायात के जाम में फँसने में हम अधीरता का परिचय देते हैं। इस पर एक कहानी बनती है। कथा कुछ इस प्रकार है - एक व्यक्ति अपने स्कूटर से कार्यालय जाना चाहता था। उसे विलम्ब हो रहा था। उसने स्कूटर चलाने का प्रयास किया, तो वह नहीं चला। उसे बस से यात्रा करनी पड़ी और एक घण्टे विलम्ब से कार्यालय पहुँचा। पता चला कि उसके बैठने के स्थान में बिजली की खराबी के कारण आग लग गयी थी और बड़ी मुश्किल से आग पर काबू पाया गया। वह व्यक्ति मंदिर में गया और ईश्वर से बोला कि भगवान् यह क्या हो रहा है, तुम इतने क्रूर कैसे हो सकते हो। पहले मेरा स्कूटर खराब कर दिया, फिर मेरे सीट में आग लगा दी। भगवान् ने कहा कि बेटे, तुम्हारा स्कूटर मैंने ही खराब किया था, क्योंकि आज तुम्हारे साथ दुर्घटना होने वाली थी। तुम्हें देर हो इसलिये कि कार्यालय में ऐसा घटित होने वाला था। हम जिसे अधीरता कह देते हैं, वह ईश्वर की इच्छानुसार होता है। हो सकता है कि यातायात में किसी का फँसना उसके किसी अच्छाई के लिये हो रहा हो। अतः किसी भी परिस्थिति में धैर्य को नहीं खोना चाहिये।
कोई यह भी कह सकता है कि शिशुपाल वध में श्रीकृष्ण ने अपना धैर्य खो दिया था। तब इस कथा को जानना आवश्यक है। अन्यथा भ्रम की स्थिति बनी रहेगी। एक बार सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार नामक ऋषि बैकुण्ठ भगवान् विष्णु से मिलने गये। उनके दो द्वारपाल थे - जय और विजय। उन्होंने उन ऋषियों को अन्दर नहीं जाने दिया, तो सनकादि ऋषियों ने उन्हें पाप योनि में फल भुगतने का शाप दिया। ये दोनों ही पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने। इन्हें भगवान् विष्णु के हाथों परमगति मिलनी थी। अतः शिशुपाल वध में श्रीकृष्ण के अधैर्य का यहाँ कोई अर्थ नहीं होता। हाँ उन्होंने यह अवश्य कहा था कि वे शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करेंगे, और जब उसने एक सौ एकवीं पर अपराध किया, तो श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। यह होना ही था। यह विधि का विधान था।
ठीक उसी प्रकार प्रभु श्रीराम का समुद्र से विनती के समय क्रोध करना अधैर्य नहीं है। इसे सात्त्विक क्रोध कहा जाता है। वे उन पर क्रोध करते हैं, जो दीन-दुखियों पर अत्याचार करते हैं अथवा उनके सहायक बनते हैं। जब समुद्र ने श्रीराम की विनम्रता को उनकी कायरता समझा, तब श्रीराम ने अपना क्रोध दिखाया। यह सात्त्विक क्रोध जब किसी अच्छे कार्य के लिये होता है, तो इसे अधीरता नहीं कहते हैं। यह कर्तव्य पालन है। अंततः इस क्रोध के समक्ष समुद्र को झुकना पड़ा था। इसके बारे में गीता को समझने का प्रयास करना होगा।
धृत्या यया धरयते मनः प्राणेन्द्रिय क्रिया।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।
अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जिस अव्यभिचारिणी अर्थात् स्थिर धारणा-शक्ति से मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा मन, प्राण एवं इन्द्रियों की क्रियाओं को नियंत्रित करता है, वह धृति सात्त्विकी है।
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।
हे अर्जुन, फलासक्त व्यक्ति जिस धारणा के द्वारा अत्यन्त आसक्तिपूर्ण धर्म, अर्थ और काम को धारण करता है, वह धृति राजसी होती है।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्ति दुमेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।
हे पार्थ, जिस धृति द्वारा दुबुर्द्धियुक्त दुष्ट मनुष्य निद्रा, भय चिंता, दुःख तथा उन्मत्तता को धारण किये रहता है, वह धृति तामसी है।
धृति वह धारणा है, जो व्यक्ति को अपने धर्म मार्ग से डिगने नहीं देता है। धैर्य बंद मुट्ठी की तरह है, जिसे मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार खोल और बंद कर सकता है। इसके लिये सबसे बड़ी आवश्यकता आत्म-विश्वास की होती है। आत्म-विश्वास का अर्थ स्वयं की क्षमता की यथार्थ जानकारी। यदि यह जानकारी झूठी है अथवा अर्द्ध-सत्य है, तब मनुष्य अभिमानी, घमण्डी और अहंकारी बन जाता है, उसमें धैर्य की अत्यधिक कमी हो जाती है। ‘‘धियां रमती स धीरः’’ जो अपनी बुद्धि में रमता है, वही धीर है।
जीवन को और उसके उपादानों को समझना आवश्यक होता है। जैसे-जैसे संसार में नकारात्मक घटनाओं में वृद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे ही हमारे धैर्य, सहनशीलता, दया, करुणा आदि की आवश्यकता भी बढ़ती जायेगी। जीवन के सार को समझना आवश्यक होगा कि जीवन को किस वस्तु की अधिक आवश्यकता है और किसकी नहीं।
प्रतिदिन हम आम जीवन में धैर्य की बातें करते दिखाई देते हैं, किन्तु उसे ग्रहण नहीं करते। व्यक्ति असफल हो जाता है और पिता कहते हैं - ‘‘धीरज रखो अगली बार सफलता मिलेगी।’’ बच्चा लड्डू माँगता है, तो माता कहती है - ‘‘थोड़ा धैर्य रखो। पूरा बन जाने दो, तुम्हें भी मिलेगा।’’ एक स्त्री के बारे में कहा जाता है कि पति की मृत्यु हो गयी, किन्तु उसने अपना धीरज न खोया और अपना एवं अपने बच्चों का लालन-पालन किया। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे जीवन में धैर्य का पाठ पढ़ाते जाते हैं, यह तो हम पर निर्भर है कि हम कितना ग्रहण कर पाते हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव के जीवन में धैर्य की अत्यधिक महत्ता है और हमें अपने चित्त पर विजय पाकर धैर्य को अपनाना चाहिये, ताकि अपना जीवन मात्र अपने लिये न होकर समस्त प्राणी संसार के लिये हो। उस परमपिता परमेश्वर के लिये हो।
विश्वजीत ‘सपन’
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। गी.16.3।।
जिस प्रकार आकाश में उठने वाले आड़े-तेढ़े धूम्र-वलयों को वायु का एक झोंका निगल जाता है, उसी प्रकार आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक इन तीनों प्रकार के तापों की पीड़ा को पचाकर, साथ ही चित्तक्षोभ होने पर भी जिस गुण के कारण एक मनुष्य तटस्थ बना रहता है, उसे धृति कहते हैं। ब्राह्मणत्व की प्राप्ति और एक सात्त्विक कर्त्ता बनने में इस गुण के विशेष महत्त्व को गीता में प्रतिपादित किया गया है।
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों में धृति को अग्रस्थान दिया गया है।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।मनु.6.92।।
आधुनिक एवं प्राचीन कवियों ने धैर्य गुण को अत्यधिक महत्ता प्रदान की है। यहाँ तक कहा गया है कि मनुष्य एवं इतर प्रणियों की सीमारेखा धैर्य के सद्गुण से खिंची है। जिस प्रकार बुद्धि के बिना मानव को मानव नहीं, बल्कि पशु कहा गया है, ठीक उसी प्रकार धीर को मनुष्य और अधीर को पशु समान माना गया है।
नीचे की ओर बहना जल का सहज धर्म है। ठीक उसी प्रकार अवगुणों की ओर फिसलना मानव का एक स्वाभाविक गुण है। यदि जल को ऊपर की ओर चढ़ाना हो, तो कोई न कोई युक्ति से उसको विपरीत गमन करवाना होता है, ठीक उसी प्रकार शरीर, मन, बुद्धि और चित्त की शक्ति का उपयोग कर मानव जीवन को उन्नत बनाना होता है, और इस कार्य में निरन्तर प्रयासरत रहना ही सात्त्विक धैर्य कहा गया है। अतः धैर्य मानव एवं उसकी मानवीयता का मूलाधार स्थापित होता है। राजसी और तामसी धैर्य भी जीवन को किसी न किसी प्रकार में प्रभावित करते रहते हैं। उससे बचकर रहना ही मानव का कर्तव्य होता है।
प्रभु श्रीराम का वन-गमन। सीता माता का अपहरण। एक अपरिचित प्रदेश में सैनिक जुटाकर प्रबल रावण का नाश करना और सीता माता को सुरक्षित लाना, उनके धैर्य का ही प्रतीक है। समस्त परिवार का बलिदान हो जाने पर भी गुरु गोविन्द सिंह जी शान्तिपूर्वक कार्य करते रहे, यही धैर्य है। धैर्य के कारण ही शिवाजी महाराज मृत्यु के मुख से भी बाहर निकल आये।
आज हम मानव-जीवन में दुःख और असफलता अधिक देखतें हैं, क्योंकि आज सभी यश और कीर्ति आदि पाना चाहते हैं, किन्तु अति शीघ्रता में बिना किसी परिश्रम के। यही धैर्य की कमी कही गयी है। जितने भी आविष्कार हुए, वे मात्र इसी कारण हुए कि आविष्कारक ने अपना धैर्य नहीं खोया और वह निरन्तर प्रयास करता रहा। यातायात के जाम में फँसने में हम अधीरता का परिचय देते हैं। इस पर एक कहानी बनती है। कथा कुछ इस प्रकार है - एक व्यक्ति अपने स्कूटर से कार्यालय जाना चाहता था। उसे विलम्ब हो रहा था। उसने स्कूटर चलाने का प्रयास किया, तो वह नहीं चला। उसे बस से यात्रा करनी पड़ी और एक घण्टे विलम्ब से कार्यालय पहुँचा। पता चला कि उसके बैठने के स्थान में बिजली की खराबी के कारण आग लग गयी थी और बड़ी मुश्किल से आग पर काबू पाया गया। वह व्यक्ति मंदिर में गया और ईश्वर से बोला कि भगवान् यह क्या हो रहा है, तुम इतने क्रूर कैसे हो सकते हो। पहले मेरा स्कूटर खराब कर दिया, फिर मेरे सीट में आग लगा दी। भगवान् ने कहा कि बेटे, तुम्हारा स्कूटर मैंने ही खराब किया था, क्योंकि आज तुम्हारे साथ दुर्घटना होने वाली थी। तुम्हें देर हो इसलिये कि कार्यालय में ऐसा घटित होने वाला था। हम जिसे अधीरता कह देते हैं, वह ईश्वर की इच्छानुसार होता है। हो सकता है कि यातायात में किसी का फँसना उसके किसी अच्छाई के लिये हो रहा हो। अतः किसी भी परिस्थिति में धैर्य को नहीं खोना चाहिये।
कोई यह भी कह सकता है कि शिशुपाल वध में श्रीकृष्ण ने अपना धैर्य खो दिया था। तब इस कथा को जानना आवश्यक है। अन्यथा भ्रम की स्थिति बनी रहेगी। एक बार सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार नामक ऋषि बैकुण्ठ भगवान् विष्णु से मिलने गये। उनके दो द्वारपाल थे - जय और विजय। उन्होंने उन ऋषियों को अन्दर नहीं जाने दिया, तो सनकादि ऋषियों ने उन्हें पाप योनि में फल भुगतने का शाप दिया। ये दोनों ही पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने। इन्हें भगवान् विष्णु के हाथों परमगति मिलनी थी। अतः शिशुपाल वध में श्रीकृष्ण के अधैर्य का यहाँ कोई अर्थ नहीं होता। हाँ उन्होंने यह अवश्य कहा था कि वे शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करेंगे, और जब उसने एक सौ एकवीं पर अपराध किया, तो श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। यह होना ही था। यह विधि का विधान था।
ठीक उसी प्रकार प्रभु श्रीराम का समुद्र से विनती के समय क्रोध करना अधैर्य नहीं है। इसे सात्त्विक क्रोध कहा जाता है। वे उन पर क्रोध करते हैं, जो दीन-दुखियों पर अत्याचार करते हैं अथवा उनके सहायक बनते हैं। जब समुद्र ने श्रीराम की विनम्रता को उनकी कायरता समझा, तब श्रीराम ने अपना क्रोध दिखाया। यह सात्त्विक क्रोध जब किसी अच्छे कार्य के लिये होता है, तो इसे अधीरता नहीं कहते हैं। यह कर्तव्य पालन है। अंततः इस क्रोध के समक्ष समुद्र को झुकना पड़ा था। इसके बारे में गीता को समझने का प्रयास करना होगा।
धृत्या यया धरयते मनः प्राणेन्द्रिय क्रिया।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।
अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जिस अव्यभिचारिणी अर्थात् स्थिर धारणा-शक्ति से मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा मन, प्राण एवं इन्द्रियों की क्रियाओं को नियंत्रित करता है, वह धृति सात्त्विकी है।
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।
हे अर्जुन, फलासक्त व्यक्ति जिस धारणा के द्वारा अत्यन्त आसक्तिपूर्ण धर्म, अर्थ और काम को धारण करता है, वह धृति राजसी होती है।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्ति दुमेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।
हे पार्थ, जिस धृति द्वारा दुबुर्द्धियुक्त दुष्ट मनुष्य निद्रा, भय चिंता, दुःख तथा उन्मत्तता को धारण किये रहता है, वह धृति तामसी है।
धृति वह धारणा है, जो व्यक्ति को अपने धर्म मार्ग से डिगने नहीं देता है। धैर्य बंद मुट्ठी की तरह है, जिसे मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार खोल और बंद कर सकता है। इसके लिये सबसे बड़ी आवश्यकता आत्म-विश्वास की होती है। आत्म-विश्वास का अर्थ स्वयं की क्षमता की यथार्थ जानकारी। यदि यह जानकारी झूठी है अथवा अर्द्ध-सत्य है, तब मनुष्य अभिमानी, घमण्डी और अहंकारी बन जाता है, उसमें धैर्य की अत्यधिक कमी हो जाती है। ‘‘धियां रमती स धीरः’’ जो अपनी बुद्धि में रमता है, वही धीर है।
जीवन को और उसके उपादानों को समझना आवश्यक होता है। जैसे-जैसे संसार में नकारात्मक घटनाओं में वृद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे ही हमारे धैर्य, सहनशीलता, दया, करुणा आदि की आवश्यकता भी बढ़ती जायेगी। जीवन के सार को समझना आवश्यक होगा कि जीवन को किस वस्तु की अधिक आवश्यकता है और किसकी नहीं।
प्रतिदिन हम आम जीवन में धैर्य की बातें करते दिखाई देते हैं, किन्तु उसे ग्रहण नहीं करते। व्यक्ति असफल हो जाता है और पिता कहते हैं - ‘‘धीरज रखो अगली बार सफलता मिलेगी।’’ बच्चा लड्डू माँगता है, तो माता कहती है - ‘‘थोड़ा धैर्य रखो। पूरा बन जाने दो, तुम्हें भी मिलेगा।’’ एक स्त्री के बारे में कहा जाता है कि पति की मृत्यु हो गयी, किन्तु उसने अपना धीरज न खोया और अपना एवं अपने बच्चों का लालन-पालन किया। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे जीवन में धैर्य का पाठ पढ़ाते जाते हैं, यह तो हम पर निर्भर है कि हम कितना ग्रहण कर पाते हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव के जीवन में धैर्य की अत्यधिक महत्ता है और हमें अपने चित्त पर विजय पाकर धैर्य को अपनाना चाहिये, ताकि अपना जीवन मात्र अपने लिये न होकर समस्त प्राणी संसार के लिये हो। उस परमपिता परमेश्वर के लिये हो।
विश्वजीत ‘सपन’