संतोषं
परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्।
संतोषमूलं
हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः।। ----- मनुस्मृति (चतुर्थ अध्याय, श्लोक 12)
अर्थात्
सुख की इच्छा रखने वाले को चाहिये कि वे संतोषवृत्ति को रख कर जो मिले उसी में
निर्वाह करें (अधिक माया में न फँसे) (क्योंकि) संतोष सुख का मूल और उसके विपरीत
असंतोष दुःख का मूल है।
इसी
को दूसरी तरह से भी कहा गया है - ‘‘संतोषं परमं सुखम्’’ अर्थात् संतोष ही परम सुख
है। मनुष्य को चाहिये कि वह संतोष रखे और जो मिले उसमें ही ख़ुश रहने का प्रयास करे, ताकि जीवन भर
सुख मिलता रहे,
क्योंकि
और अधिक की चाह का अंत कभी नहीं होता है। यह चाह बढ़ती ही जाती है, ठीक उसी प्रकार
यदि पानी न मिले, तो प्यास बढ़ती जाती है। अधिक से अधिक की चाह में सबका मिलना
दुर्लभ होता है,
तो
इसकी प्यास बढ़ती जाती है। एक तरह से यह एक मानसिक रोग भी कहा जा सकता है, जिसका उपचार कम
ही मिल पाता है,
अतः
इससे दूरी ही उचित मानी गयी है।
बात
मात्र इतनी नहीं कि यह उक्ति कितनी सटीक और सही है अथवा हम इसे जानते हैं या नहीं? बात यह है कि
क्या हम इसका अपने जीवन में पालन करते हैं? क्या इस
मूलमंत्र को अपना कर अपने जीवन को सुखी बनाने का प्रयास करते हैं? क्या हमें ऐसा
नहीं करना चाहिये? ऐसे अनेक प्रश्नों को जब हम अपने जीवन में उठाते हैं, तो सच की ओर
अग्रसर होते हैं। शास्त्र जो कहते हैं, वे अनुभवी वाक्य होते
हैं और सदियों का अनुभव उनमें छुपा होता है। इसी कारण ऐसी उक्तियों को जीवन में
उतारना अच्छा माना गया है।
आइये संतोष के इस मूलमंत्र को अपने जीवन में
अपनाने का प्रयास करें, तब चाहे किसी भी प्रकार की इच्छा क्यों न हो, हम उसे सीमित
रखने का प्रयास करें और देखें कि यह हमें किस प्रकार सुख की ओर लेकर चलती है।