हम किसी घटना को किस प्रकार से देखते हैं, वह उचित एवं अनुचित का बोध कराता है। एक घटना को उचित अथवा अनुचित दृष्टि से देखना हमारी अपनी मानसिकता एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है। एक सामान्य सी घटना से इसे समझने का प्रयास करते हैं - एक व्यक्ति गंदी नाली की सफाई कर रहा था। उसके पास से अनेक प्रकार के मनुष्य आ-जा रहे थे। एक संभ्रान्त व्यक्ति बोला - "कितना अभागा इंसान है। मैं तो यह कार्य कभी नहीं करता।" वहीं से एक ऐसा व्यक्ति गुजरा, जिसके पास कोई काम नहीं था और पेट भरने के लिये पैसे भी नहीं थे। उसने कहा - "अरे, कितना भाग्यशाली व्यक्ति है। इसे यह काम मिल गया और मुझे कोई काम नहीं मिलता।"
सत्य यही है कि उचित अथवा अनुचित कुछ भी नहीं होता है। वस्तुतः जो भी होता है, वह उचित होता है। ईश्वर ने उसे उचित जानकर ही होने दिया है। यह तो हम मनुष्य में दोष है कि यदि वह हमारे भले के लिए नहीं होता तो हम उसे अनुचित मान लेते हैं। अनुचित कुछ भी नहीं होता है। वह अनुचित हमें प्रतीत होता है क्योंकि हमारे मन-मुताबिक नहीं होता है। हमारा नजरिया ठीक होना चाहिए, तब हमें अनुचित कुछ भी नहीं लगता। शीर्षासन करते समय जगत को उल्टा देख लेने से जगत उल्टा नहीं होता बल्कि हमें वैसा दिखाई देता है।
हमें सत्य समझने का प्रयास करना चाहिए। यही ईश्वर की इच्छा है। यही उचित है। ईश्वर कभी अनुचित कार्य नहीं करता है और न ही होने देता है। असल में जो होता है, वही होना था, अतः वह होता है। इसमें चाहे हमारे अपने कर्म के दोष हों अथवा मन के, निर्णय परमपिता करता है। यहाँ कुछ व्यक्ति विवाद करते हैं कि तब तो अनुचित कार्य भी उचित ही होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है। किसी को हानि पहुँचाना, किसी की निंदा करना आदि कार्य अनुचित अवश्य होते हैं, अतः इसे भ्रम के रूप में उचित सोच लेना पुनः हमारी अपनी मानसिकता का ही परिचायक है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी घटना अथवा कर्म अथवा कार्य को सकारात्मक एवं शुद्ध दृष्टि से देखना ही ईश्वर की इच्छा है। यही जीवन को सही ढंग से जीने का असली माध्यम है।
विश्वजीत ‘सपन’