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Sunday 18 September 2016

आस्था

क्या बिना आस्था के जीवन संभव नहीं?

बहुत ही सुन्दर एवं दार्शनिक प्रश्न है। आस्था अथवा कोई भी विचार वातावरण से प्रेरित होता है। पृथ्वी पर अनेक ऐसे समाज हैं, जहाँ ईश्वर की मान्यता नहीं है। तब आस्था का भी प्रश्न नहीं उठता। यदि हम केवल ईश्वरीय आस्था की ही बात करें तो। अतः जीवन तब भी संभव है। फिर इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? 


मानवीय भावनाओं को सहज ही नियंत्रित करना कठिन होता है। इसके लिये अनेक उपाय किये जाते रहे हैं। इसके नियंत्रण हेतु एक उपाय आस्था भी है, ताकि जीवन की कठिनाइयों का सामना उचित तरीके से किया जा सके। आस्था मानव को एक विश्वास देता है और ऊँची चढ़ाइयों को भी आसानी से पार करने में सक्षम हो जाता है। 


ऐसा देखा गया है कि बड़े से बड़े भक्त भी मुसीबत आने पर, शारीरिक अथवा मानसिक परेशानियाँ आने पर तत्काल ही दोष उसी ईश्वर पर डाल देते हैं, जिनकी पूजा वे वर्षों से करते चले आ रहे हैं। यह आस्था की असमझ ही है। न केवल बुरा करना, बल्कि बुरी सोच का मन में आना भी वर्जित है, तब कर्म-फल को उस समय कैसे भूला जा सकता है? स्वयं श्रीकृष्ण एवं श्रीराम को भी मानवीय अवतार के समय संतापों से गुज़रना पड़ा था, तब हम मनुष्य की बिसात ही कितनी है?
किसी भी आपात स्थिति में हमारी आस्था डगमगाने लगती है। ऐसा इसलिये क्योंकि हमारी आस्था की डोर निर्बल होती है। साथ ही उसमें स्वार्थ भी शामिल होता है और इसलिये जब तक हमारे लिये अच्छा होता है, हमारी आस्था बनी रहती है। जैसे ही कुछ बुरा हुआ, तो हम उन्हें दोष देने लगते हैं। यह आस्था नहीं है। अर्थात् आस्था निःस्वार्थ हो, तो टूटती नहीं है, बल्कि इसको यूँ कहें कि आस्था में स्वार्थ की भावना आई तो वह आस्था रहेगी ही नहीं।


वैचारिक मनुष्य जीवन को उथले स्तर पर न जी सकता है और ही निर्वाह कर सकता है। अतः दर्शन की उत्पत्ति हुई। आस्था में स्वार्थ छिपा है तो वह आस्था नहीं रही। यह अलग बात है कि स्वार्थ क्या है, इसे भी परिभाषित किया गया है। प्रस्तुत विषय में यदि झाँकें, तो स्पष्ट है कि विकट परिस्थितियों में मानव-मन सहसा विकार-युक्त हो जाता है, जो मानवीय दुर्बलता है। अतः दोष आस्था की भावना अथवा आस्था का नहीं, बल्कि मानवीय दुर्बलता का है कि वह यह नहीं समझ पाता कि जो हो रहा है, वैसा होना निश्चित है और होकर रहेगा। किसी पर दोष देने से टलेगा नहीं। 


हाँ पूजा-पाठ आदि का संबंध डर से है। प्रकृति की पूजा का मन में प्रवेश उनसे होने वाली हानि का डर भी था और उनसे मिलने वाले लाभ के कारण भी। वह आज भी है कि यदि आपने कुछ अनुचित किया तो ईश्वर दण्ड देंगे। यह हमारे मन में रहता है और आज का समाज अधिक कर्मकाण्डों में चला गया है, अधिक पूजा होने लगी है, अधिक मंदिर-मस्जिद बनने लगे हैं। जहाँ एक ओर प्रतियोगिता का भाव है, वहीं दूसरी ओर अनुचित कर्म के फल का डर भी है।


मेरा व्यक्तिगत मत है कि आस्था के कभी क्षीण होने का प्रश्न ही नहीं है। यदि नियति ने कुछ लिखा है, तो उसका कारण अवश्य है और उसे होना ही है। हम अपने अच्छे आचरण एवं कर्मों से कुछ भरपाई अवश्य कर सकते हैं और कुछ हद तक आने वाली मुसीबतों से छुटकारा भी पा सकते हैं, किन्तु नियति को बदलने का निर्णय मात्र परमपिता परमेश्वर का ही होता है। अतः जो हो रहा है, वह किसी अच्छे के लिये ही हो रहा है, इसी विश्वास के साथ अपनी आस्था की डोर को मजबूती से पकड़े रहना चाहिये।


मानवीय जीवन में मृत्यु एक सत्य है। जो भी प्राणी अथवा वस्तु जन्म लेगा, उसकी मृत्यु अटल है। मात्र यह पता नहीं कि कब और कैसे? इस ज्ञान का होना आवश्यक है, ताकि आस्था की डोर कच्ची न रह पाये। सांसारिक व्यवस्था में मृत्यु का डर अथवा कठिनाइयों की मार हमारी आस्था की डोर को निर्बल बनाती है। कोई भी प्राणी मृत्युंजय नहीं बन सकता, तब किसी अन्य पर दोष डालना ही अनुचित है। संवेदनशीलता अलग वस्तु है, उसे जीवन-सत्य के ज्ञान से जोड़ना भूल है। वैचारिक मन को स्थिरता देना मानवीय कर्तव्य है। इसी स्थिरता से आस्था यथावत् बनी रहती है। 


यह सत्य है कि जीवन वह नहीं है, जो किताबों में वर्णित है। यह एक कठिन कला है और इसे सुचारु रूप से चलाने के लिये मन को स्थिर करना पड़ता है। आस्था हो अथवा विश्वास - कभी न कभी बिखरता है, क्योंकि हम मानव हैं और मानवीय संवेदनाओं के अधीन हैं। यदि नहीं होते तो स्वजन की मृत्यु पर दुःख कदापि नहीं होता। अतः सोच को जागृत करने की आवश्यकता है कि क्या है और क्यों है?

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विश्वजीत ‘सपन’

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