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Sunday 1 October 2017

आभासी दुनिया और साहित्य

यह बात सही है कि आभासी दुनिया ने अनेक लोगों को अभिव्यक्ति का एक आसान साधन प्रदान किया है। आज हमें किसी प्रकाशक की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता है। हम अपनी मर्जी से कुछ भी प्रकाशित कर सकते हैं। हमें सैकड़ों पाठक मिल जाते हैं, बिना किसी मेहनत के और संतुष्टि भी मिलती है। यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन है और इस युग की एक बड़ी उपलब्धि भी है। इसने सही मायने में स्थानीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार में महती भूमिका निभाई है। 

देखना यह होगा कि इसके केवल सकारात्मक पक्ष ही नहीं हैं, बल्कि अनेक नकारात्मक पक्ष भी हैं। जहाँ एक ओर यह हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है, वहीं दूसरी ओर अनाप-शनाप लिखने को भी प्रेरित करती है। एक बात जो यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण है, वह है मौलिकता की। साथ ही दूसरी बात भी बहुत प्रासंगिक है और वह है प्रामाणिकता की। आभासी दुनिया के साहित्य में मौलिकता और प्रामाणिकता का अभाव साहित्य को लाभ देने के बजाय उसे बहुत हानि पहुँचा रहा है, जो विचारणीय है और आने वाले समय में सोचनीय भी। 


इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज कुकुरमुत्तों की भाँति बढ़ती साहित्यकारों, कवियों, लेखकों की नयी पौध ने ‘‘अधजल गगरी छलकत जाये’’ की भाँति अधकचरे ज्ञान को बिना प्रामाणिकता के आभासी दुनिया का हिस्सा बनाया है, जिसे लोग सच मानने पर विवश हो रहे हैं। यह साहित्य के लिये और उसके उचित प्रचार-प्रसार के लिये न केवल एक बड़ा ख़तरा है, बल्कि एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। अनधिकार लेखन, बिना कारण की अभिव्यक्तियाँ और उन पर बेकार की वाहवाहियाँ, स्वयं को बड़ा साहित्यकार कहलवाने की ललक, साहित्यकार बन जाने का दम्भ, प्रकाशकों की भरमार और लुभावने प्रस्ताव आदि न जाने ऐसे अनेक कारण हैं, जो उचित, सामाजिक एवं सांस्कृतिक साहित्य के लिये एक बड़ी समस्या के रूप में उभरकर सामने आ रहे हैं। हमें सोचने पर विवश कर रहे हैं कि ऐसे साहित्य से साहित्य का क्या भविष्य होगा?


सीखने और सिखाने का दौर भी चला है, जो स्वागतेय है। अनेक लोग हैं और मंच हैं, जिन पर यह दौर चल रहा है। अनेक ब्लॉग और वेबसाइट हैं, जहाँ सार्थक चर्चायें भी हो रही हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम सीखने की ललक रखते हैं अथवा मात्र लिखने में विश्वास रखते हैं कि हमसे अच्छा कोई नहीं लिख सकता। तो इस प्रकार आभासी दुनिया का साहित्य समारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रभाव डाल रहा है। आवश्यकता है कि हम इसके समारात्मक प्रभाव को अपनी झोली में डालें और नकारात्मक को दूर करने का प्रयास करें। 


यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि हमें सार-सार का ग्रहण करना है और कचरा फेंकना भी है। इस आभासी दुनिया के लिये यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बिन्दु है, जिसे हम सभी को समझना होगा। बिना परखे किसी भी तथ्य को नहीं स्वीकारना ही उचित है।


यह चिंता भी जायज है कि जब से फेसबुक नामक चिड़िया का जन्म हुआ है, लोग धड़ाधड़ कुछ लिखने को उतारु हैं। बिना सोचे-विचारे कि कुछ तथ्य-कथ्य भी रचना में है अथवा नहीं। वे प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखकर डालना चाहते हैं और बिना पढ़े ही वाहवाही देने वालों से प्रसन्न होते हैं। यह चिंताजनक है। सही बात तो यह है कि साहित्य साधना है। यह खेल-खेल में कुछ अभिव्यक्त करने का साधन न कभी था और न कभी रहेगा। साहित्य जब उद्देश्य-विहीन हो जाये, तो वह साहित्य नहीं होता। 


इसमें कोई संदेह नहीं कि आभासी दुनिया एक क्रान्तिकारी क़दम है। इसके सकारात्मक योगदान को देखना होगा और नकारात्मकता को नकारना होगा, उसे सही दिशा में मोड़ना होगा। तभी हम इससे अधिकाधिक लाभान्वित हो सकते हैं।


विश्वजीत 'सपन'

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