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Sunday 23 February 2020

हिन्दी साहित्य पर यूरोपीय साहित्य का प्रभाव



17वीं एवं 18वीं शताब्दी तब भक्तिकाल का वैभव प्रायः लुप्त हो चुका था। भक्ति का स्थान शृंगार ने ले लिया था तथा साहित्य दरबार की वस्तु बन चुकी थी। कवि के स्थान को दरबारी गवैयों, नाचने वालों एवं चाटुकारों ने ले लिया था। काव्य की परिधि सीमित हो गयी और बड़ी तीव्रता से पतन की ओर चल पड़ी थी। इसी कारण मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर जैसे कवि भी उतनी महानता न पा सके। 19वीं शताब्दी में तभी यूरोपीय साहित्य के प्रभावों का आगमन हुआ। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने इसमें बड़ा सहयोग प्रदान किया। चूँकि यह हिन्दी साहित्य के अधःपतन का काल था, अतः प्रभाव बड़ा व्यापक पड़ा। किसी अन्य काल में संभव है कि इतना प्रभाव न पड़ा होता।


    भारतीयों ने मुख्यतः अंग्रेज़ी एवं सामान्यतः पाश्चात्य जीवन का एक नया आदर्श प्राप्त किया आंर इसी कारण अंग्रेज़ी साहित्य का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर बड़ी तीव्रता से हुआ। बंगला, मराठी एवं गुजराती साहित्य पर इसका प्रभाव 19वीं शताब्दी के मध्य तब व्यापक हो चुका था। एक अनुमान के अनुसार हिन्दी साहित्य पर इसका प्रभाव लगभग 1870 ईसवी के निकट पड़ने लगा था। ईसाई मिशन के पादरियों ने कोलकता, आगरा, मिर्जापुर, बनारस आदि में छापाखाने खोले। सर्वप्रथम बाइबिल का अनुवाद और बाद में स्कूली किताबों को छापने का कार्य किया। भारतीय साहित्य में गद्य का अभाव था, तो इन्होंने हिन्दी साहित्य के गद्य के उद्भव और विकास में बड़ा योगदान दिया। हालाँकि हम हिन्दी गद्य के उद्भव एवं विकास में खुसरो एवं रामप्रसाद निरंजनी का नाम गर्व से लेते हैं, किन्तु वह मात्र प्रारंभिक ही था। 


    यदि हम पहली मानसिक प्रक्रिया की बात करें, तो यह था अनुसरण करना। शेक्सपीयर, मिल्टन तथा 19वीं सदी के रोमांटिक कवियों की कृतियों के अनुवाद धड़ल्ले से हुए। अंग्रेज़ी परिपाटी से प्रभावित होकर हिन्दी कवियों ने निबंध आदि लिखने प्रारंभ किये। भारतेन्दु युग में इसके प्रमाण प्रचुरता से मिलते हैं। अनुच्छेदों में कविता लिखने की कला संभवतः मिल्टन से ही मिला। रोमांटिक कविताओं ने हिन्दी साहित्य को धर दबोचा। अब समाज अंगेज़ी और उसके साहित्य के निकट जाने लगा था। 


    शब्दों के चयन, वाक्य-विन्यास तथा भाषा-शैली के विकास में अंग्रेज़ी साहित्य का प्रभाव स्पष्टता से दिखाई देता है। इनके ही नमूनों के अनुसार पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी गद्य का रूप निर्धारित किया। तब भी विरोध हुआ था और पं. गोविन्द नारायण मिश्र आदि विद्वानों ने प्राचीन संस्कृत गद्य शैली में अनुवाद कर इसे स्थापित करने का प्रयास किया। प्रतिक्रिया मराठी साहित्य में अधिक रही और वे कटे भी थे, किन्तु हिन्दी साहित्य में विरोध उतना प्रबल नहीं रहा अतः संस्कृत गद्य शैली के साथ-साथ पाश्चात्य शैली का भी प्रभाव एक साथ चलता रहा। 


    इस बात पर विचार करना आवश्यक होगा कि तब कैसी परिस्थितियाँ थीं? भारत उपनिवेशवाद की चंगुल में फँसने वाला था। भारत में भक्तिकाल का पतन हो चुका था और समाज दिशाहीन था। 1834 के बाद अंग्रज़ी शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा था। अंग्रेज़ों ने स्वयं को वरीय घोषित करने के साथ-साथ भारत की बँटी हुई भारतीयता का लाभ उठाया। समाज के लिये आदर्श के रूप में कुछ नहीं था, मात्र पश्चिम की लुभावनी सभ्यता थी, जो स्वयं को बेहतर सभ्यता के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रही। शिवाजी, हैदर अली, टीपू सुल्तान आदि भारत को एकीकृत करने में असफल रहे। अंग्रेज़ अपने लक्ष्य को हासिल करते चले गये। अब अंग्रेज़ी की जानकारी के साथ-साथ उनके साहित्य का परिचय सुगम था। भारतेन्दु युग में हिन्दी साहित्य पर अंग्रेज़ी साहित्य का प्रभाव पड़ा। हिन्दीभाषी जनता का सम्पर्क अंग्रेज़ी साहित्य से बढ़ने लगा। स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों का सम्पर्क अंग्रेज़ी साहित्य अधिक निकटता से होने लगा। जनता उनसे प्रभावित होने लगी, क्योंकि संस्कृतनिष्ठ भाषा दुरूह होती गयी और पाण्डित्य से भरने लगी थी। लोग सरलता की ओर बढ़ने लगे, क्योंकि पाश्चात्य गद्य सरल एवं सहज था। इस प्रकार यह अवश्यंभावी था कि समाज पाश्चात्य साहित्य को अपनाने पर विवश थी। फिर एक समय आया जब यह रुतबे की बात भी बनती गयी। आप तभी सभ्य कहे जाते थे, जब आप अंग्रेज़ी जानते थे और उस साहित्य से आपका परिचय था।


20वीं सदी के प्रथम बीस वर्षों में एक ओर पाश्चात्य साहित्य का स्वागत किया गया और दूसरी ओर विरोध भी हुआ, लेकिन यह विरोध तीव्र न था। इसी कारण दोनों प्रकार के साहित्य एक-साथ सक्रिय रहे। कहीं-कहीं इन दोनों में मेल भी दिखाई देता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। उदाहरण के तौर पर ‘प्रिय प्रवास’ की राधा के चित्रण में एवं कविरत्न सत्यनारायण के ‘भ्रमरदूत’ में नवीनता का पुट स्पष्ट दिखाई देता है।


1920 के बाद लगभग पन्द्रह वर्षों का युग छायावाद कहा गया। यह काल यूरोपीय साहित्य एवं हिन्दी साहित्य के समन्वय की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण काल था। इसके पूर्व इन दोनों परम्पराओं में मेल अवश्य हुआ था, किन्तु हिल-मिल नहीं पाई थीं। इनमें आपस में मिलने की प्रवृत्ति अवश्य थी, किन्तु कहीं न कहीं कुछ संशय था, कुछ विरोध की भावना भी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारतीय जनता का यूरोप से परिचय एक बड़ा कारण था जिसने इसे प्रभावित करने में एक असरकारी भूमिका निभाई। अब इस पश्चिमी साहित्य के आकर्षण का काल था। सन् 1900 से 1915 के मध्य कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य में भारत एवं पश्चिमी साहित्य का चमत्कारपूर्ण समन्वय देखा जा सकता है।


छायावादी कविताओं में कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का उदाहरण था। इनकी कविताओं में भारतीय दर्शन और यूरोपीय रोमांटिक और प्रतीकवादी स्वरूप का ऐसा मेल हुआ कि वह मुग्धकारी बन गया। इसी कारण छायावादी कविताओं में इनका समन्वय सर्वाधिक हुआ। यदि विश्लेषण करें, तो भावों एवं विचारों में इन्होंने भारतीय दर्शन अधिक प्रधानता थी, किन्तु प्रगीत मुक्तकों के इस स्वर्णयुग में यूरोपीय रोमांटिक कविताओं का साम्य मिलता है, बल्कि परस्पर संबंध भी मिलता है। छायावादी कविताओं के अध्ययन से कभी वड्सवर्थ, तो कभी कीट्स और कभी शेली की आवाज़ सुनाई देती है। प्रतीकों का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है और साम्य इतना कि कभी-कभी अनुकरण का संदेह भी उपस्थित हो जाता है।


प्रेमचन्द के उपन्यासों में भारतीय एवं पाश्चात्य प्रभाव का एकीकरण मिलता है। विचार और आदर्श पूर्णतः भारतीय हैं, किन्तु तकनीक पूर्णतः पाश्चात्य है। इनका मानवतावाद भी पाश्चात्य मानवतावाद के अधिक निकट है, जो ‘बलजेक’ के समय से पश्चिम में रहा है। एक प्रकार से प्रेमचन्द का हिन्दी साहित्य को सबसे बड़ा योगदान यही कहा जाता है कि उन्होंने सर्वप्रथम पाश्चात्य परिपाटियों पर कथा-कहानियों एवं उपन्यासों की सफल रचनायें कीं। इसी काल में जैनेन्द्र कुमार ने मनोविज्ञान का प्रवेश कथाओं में किया। 19वीं और 20वीं सदी में यूरोप में मनोविज्ञान ने बड़ी प्रगति की थी और साहित्य से उसकी निकटता स्वाभाविक थी। 


नाटकों के क्षेत्र में भी यह प्रभाव दिखाई देता है। उदाहरण के तौर पर द्विजेन्द्रलाल राय द्वारा सभी नाटकों का विवेचन शेक्सपीयर के नाटकों के आधार पर किया गया, जबकि भारत में नाट्यशास्त्र प्राचीन काल से रहा है। अनेक विद्वानों ने भारतीय मानकों को भुलाकर पाश्चात्य मानकों को अपनाया। पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र ने ‘शा’ और ‘इब्सन’ का अनुसरण करके हिन्दी नाटक लिखे। देखा जाये तो हिन्दी आलोचना भी पाश्चात्य आदर्शों को मानकर ही चलती रही है। 


जब 1935 के लगभग छायावाद का काल समाप्त हो चला था, तब तक भारत में अंग्रेज़ी शिक्षाप्राप्त लोगों की संख्या बड़ी हो चुकी थी। अब भारत का ध्यान अंग्रेज़ी से हटकर समस्त यूरोप की ओर चल पड़ा था। विद्यालयीय शिक्षा, समाचार पत्रों एवं रेडियों ने जनमानस को प्रभवित करना प्रारंभ कर दिया था। यूरोप के नवीन विचार भारत में घुसपैठ कर रहे थे। मार्क्स का दर्शन विश्व को प्रभवित कर रहा था। 


मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण का यह युग अर्द्धचेतन एवं अचेतन मन का अध्ययन करने लगा। प्रतीकवाद ने साहित्य में जड़ें जमा लीं। तब हमारे साहित्य का संतुलन बिगड़ गया। अनेक बार ऐसा भी देखा गया है कि आलोचकों ने इन प्रभावों को मानने से इंकार कर दिया है। उनका तर्क है कि इससे हमारा आत्मसम्मान नष्ट होता है और साहित्य विकृत, किन्तु सत्य को स्वीकार कर उससे तालमेल कर स्वयं को स्थापित करना ही उचित होगा। 

निष्कर्षतः यही कहना उचित होगा कि जीवित भाषा और साहित्य को पोषक तथा शक्तिवर्द्धक तत्त्वों के ग्रहण से कभी भी परहेज नहीं करना चाहिये। आज अंग्रेज़ी सबसे महत्त्वपूर्ण और सर्वाधिक बोलने वाली भाषा है, क्योंकि इसने दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाने में कभी संकोच नहीं किया। अंग्रेज़ी और अमरीकी साहित्य की शक्ति एवं समृद्धि का सबसे बड़ा कारण उनकी ग्रहण शक्ति है। बात कोरा अनुकरण करने की नहीं, जो छायावादी समय में हुआ। तब यह हानिकारण एवं निरर्थक भी है, किन्तु जब हम समझदारी के साथ विशेष वातावरण और परिस्थतियों के उपयोग करते हैं, तो उससे साहित्य को कोई ख़तरा नहीं होता, बल्कि वह समृद्ध होता है।


इति शुभम्


विश्वजीत ‘सपन’

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