न्याय और पक्षपात
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न्याय और पक्षपात में बहुत कम का अंतर होता है । यदि हम ध्यान से देखें तो ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जब हम बिना दूसरे का पक्ष सुने या उसे जाने ही निर्णय देते हैं तो यह पक्षपात होता है क्योंकि तब हम सिक्के के एक ही पहलू पर गौर करते हैं । वस्तुतः हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम दूसरा पहलू भी जानें और उसके बाद ही निर्णय लें कि सत्य क्या है । कई बार ऐसा होता है कि जब हम बिना किसी प्रमाण के ही एक व्यक्ति की बात को स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि हम उससे भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं । यह अवश्यम्भावी है क्योंकि हम सभी मानवीय कमियों से विवश हैं, किन्तु क्या यह उचित है ? यदि हम न्याय-प्रणाली को समझें तो वहाँ यही प्रथा है कि निर्णय से पूर्व दोनों पक्षों की बातें सुनी जाती हैं और उसके उपरान्त ही निर्णय लिया जाता है । यह आवश्यक है कि जब हम न्याय की कुर्सी पर बैठते हैं तो हमें भावनाओं में बहने का अधिकार नहीं होता है । हमें बारीक़ी से सच का आकलन करना चाहिए ताकि सच गुमनामी के अंधेरे में छुप न जाए । कहने का तात्पर्य यह है कि न्याय तभी संभव है जब दोनों पक्षों को सुनकर, जानकर और समझकर निर्णय किया जाए ।
न्याय और पक्षपात में बहुत कम का अंतर होता है । यदि हम ध्यान से देखें तो ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जब हम बिना दूसरे का पक्ष सुने या उसे जाने ही निर्णय देते हैं तो यह पक्षपात होता है क्योंकि तब हम सिक्के के एक ही पहलू पर गौर करते हैं । वस्तुतः हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम दूसरा पहलू भी जानें और उसके बाद ही निर्णय लें कि सत्य क्या है । कई बार ऐसा होता है कि जब हम बिना किसी प्रमाण के ही एक व्यक्ति की बात को स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि हम उससे भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं । यह अवश्यम्भावी है क्योंकि हम सभी मानवीय कमियों से विवश हैं, किन्तु क्या यह उचित है ? यदि हम न्याय-प्रणाली को समझें तो वहाँ यही प्रथा है कि निर्णय से पूर्व दोनों पक्षों की बातें सुनी जाती हैं और उसके उपरान्त ही निर्णय लिया जाता है । यह आवश्यक है कि जब हम न्याय की कुर्सी पर बैठते हैं तो हमें भावनाओं में बहने का अधिकार नहीं होता है । हमें बारीक़ी से सच का आकलन करना चाहिए ताकि सच गुमनामी के अंधेरे में छुप न जाए । कहने का तात्पर्य यह है कि न्याय तभी संभव है जब दोनों पक्षों को सुनकर, जानकर और समझकर निर्णय किया जाए ।
पक्षपात एक ऐसा गहरा घाव
है जो मानव को हमेशा के लिए तोड़ सकता है । उसे अमानवीय भी बना सकता है और इसलिए न्याय की ओर ही हमें
क़दम उठाना चाहिए । यह कदापि हल्के में लेने का विषय नहीं है । यह एक गंभीर विषय है
और इस पर हम सभी को अवश्य ध्यान देना चाहिए । एक तरह से देखा जाए तो यह आदत की बात
होनी चाहिए । तात्पर्य यह कि बिना विशेष श्रम के ही हमें दूसरे की बात सुनने की ओर
उद्यत हो जाना चाहिए और इसके लिए प्रारंभ में सश्रम प्रयास होने चाहिए । जब हम घर
में भी एक बच्चे की बात यूँ ही मान लेते हैं और दूसरे की बात सुनते भी नहीं तो हम
पक्षपाती निर्णय के दोषी होते हैं । इससे बचने के लिए हमें प्रयास कर दूसरे की बात
सुनने की आदत डालनी चाहिए ।
पक्षपात असत्य का ढकोसला होता है वहीं न्याय सत्य का सुनहरा आँगन । यह हम मानव जाति पर निर्भर है कि हम आवेग में असत्य की ओर चलें अथवा संयत मन से सत्य की ओर । यह बात भी एक कड़ुवा सत्य है कि पुकार-पुकार कर कहने अथवा रोने-धोने अथवा चीखने-चिल्लाने से सत्य नहीं मिटता है । हाँ असमय में आप उसका गला घोंट अवश्य सकते हैं, किन्तु सत्य सत्य ही रहता है । वह अडिग है । इसलिए सत्य की खोज में, न्याय की ओर चलने का हमारा प्रयास हम सभी के जीवन को हमेशा के लिए सुखमय बना सकता है । एक निश्चयपूर्वक किया गया ऐसा श्रम ही मानव को मानव की श्रेणी में रखता है और आज मानव और मानवीयता के संरक्षण की महती आवश्यकता है ।
============================== ========== सपन
पक्षपात असत्य का ढकोसला होता है वहीं न्याय सत्य का सुनहरा आँगन । यह हम मानव जाति पर निर्भर है कि हम आवेग में असत्य की ओर चलें अथवा संयत मन से सत्य की ओर । यह बात भी एक कड़ुवा सत्य है कि पुकार-पुकार कर कहने अथवा रोने-धोने अथवा चीखने-चिल्लाने से सत्य नहीं मिटता है । हाँ असमय में आप उसका गला घोंट अवश्य सकते हैं, किन्तु सत्य सत्य ही रहता है । वह अडिग है । इसलिए सत्य की खोज में, न्याय की ओर चलने का हमारा प्रयास हम सभी के जीवन को हमेशा के लिए सुखमय बना सकता है । एक निश्चयपूर्वक किया गया ऐसा श्रम ही मानव को मानव की श्रेणी में रखता है और आज मानव और मानवीयता के संरक्षण की महती आवश्यकता है ।
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